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स्त्री को पीछे धकेलती प्रतिगामी परिस्थितियां | सुरेश तोमर | Regressive Circumstances Holding Women Back | Suresh Tomar

स्त्री को पीछे धकेलती प्रतिगामी परिस्थितियां

युद्ध, सांप्रदायिक व जातीय दंगे, महामारी और राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में किसी भी देश या समाज की  उन्नति संभव नहीं है। परन्तु इन परिस्थितियों का सबसे अधिक असर महिलाओं की प्रगति पर पड़ता है। इन विपरीत परिस्थितियों में गरीबी, बेरोजगारी,आर्थिक मंदी, प्राकृतिक आपदाएं और दुरूह प्राकृतिक परिस्थितियों को और जोड़ लेते हैं। प्राकृतिक या मनुष्य के द्वारा पैदा की गई हर आपदा का सबसे ज्यादा खामियाजा स्त्री को ही भुगतना पड़ता है।

कहर ढाती महामारी

बीते दो से ज्यादा साल सारी दुनिया कोविड जैसी महामारी से पीड़ित रही है। लाखों लोग इस महामारी से काल का ग्रास बन गये, कई बच्चे अनाथ हो गये, कई लोग कोविड के बाद के प्रभावों को अभी तक झेल रहे हैं। सारी दुनिया में इस महामारी के दीर्घकालीन नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। परन्तु सबसे घातक प्रभाव महिलाओं पर पडा है। लॉकडाउन के दौरान पुरूषों को घरों के अंदर रहना पडा,़ इस कारण महिलाओं को सामान्य दिनों की तुलना में अधिक घरेलू काम करना पडा।़ इसके साथ ही उन पर घरेलू हिंसा, यौन हिंसा और विवाह के अंदर बलात्कार (मेरिटल रेप) का भी सामना करना पडा।इंग्लैण्ड में एक अभियान के तहत् घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं ने अपने जख्मों के चित्र जारी किये। ये चित्र दुनियाभर में औरतें किस तरह शारीरिक हिंसा का शिकार हो रहीं हैं, की जीती जागती कहानी कह रहे थे। बी‧बी‧सी‧ के एक आंकड़े के अनुसार इंग्लैण्ड में घरेलू हिंसा में ४९त्न की बढ़ोत्तरी हुई। घरेलू हिंसा के मामलों में भारत की स्थिति भी कमोवेश यही थी। इस दौरान राष्ट्रीय महिला आयोग को महिलाओं पर हिंसा की पिछले वर्षों की तुलना में १‧५ गुना शिकायतें प्राप्त हुईं।

स्त्री-पुरूष समानता

(जेंडर इक्वेलिटी)

हमें इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि यदि किसी भी समाज में स्त्री-पुरूष-असमानता है, तो वह आदर्श समाज नहीं हो सकता है। हम स्त्री-पुरूष समानता (जेंडर इक्वेलिटी) की दिशा में जितना आगे बढ़ेंगे। समाज उतना ही आगे बढ़ेगा। कोई भी राष्ट्र अगर जेंडर गैप के मापदण्ड की कसौटी पर खुद को नहीं परख रहा है तो वह प्रगति और विकास के सही मायने समझ ही नहीं पा रहा है। केवल आर्थिक और सामरिक शक्ति को बढाऩे से समाज में शांति और खुशहाली नहीं हो सकती।

युद्ध की त्रासद

आदिकाल से आज तक बलात्कार हर युद्ध का सच है। आज जबकि रूस ने यूक्रेन में युद्ध छेड़ रखा है, यूक्रेन स्त्रियां भी बलात्कार का शिकार बन रही है। युद्ध हमेशा स्त्रियों के शरीर पर लड़ा जाता है। युद्ध की पृष्ठभूमि पर लगभग २५०० साल पहले एरिस्टोफेनस ने एक ग्रीक नाटक ‘‘लिसिस्ट्राटा’’ लिखा है। उसे  पढ़कर लगता है कि तमाम प्रगति के बाद भी पिछले २५०० साल में स्त्रियों के लिए कुछ नहीं बदला है।

हर युद्ध में विजयी पक्ष पराजित राज्य में लूटपाट करता है वहां की संपत्ति उपयोगी पशु और स्त्रियां सभी लूट के समान में शामिल होती हैं। युद्ध त्रासद होता है परंतु सर्वाधिक त्रासदी औरतों के लिए लेकर आता है। शायद यही कारण है कि विजयी पक्ष की स्त्रियां उन स्त्रियों के प्रति संवेदना रखती हैं जिन्हें गुलामी के लिए बंदी बनाकर लाया गया है और अब विजयी पक्ष के पुरुषों के लिए यौन दास (sex slave) हैं। इस पृष्ठभूमि में पुनः राज्य विस्तार के लिए विजयी पक्ष अन्य युद्ध की तैयारी करने लगता है, इसकी सुगबुगाहट स्त्रियों को मिलती है तो वे इस युद्ध का विरोध करने का निर्णय लेती हैं। वे सभी मिलकर घोषणा करतीं हैं कि यदि उनके पति अगले युद्ध के लिए जाते हैं तो वे उनके साथ नहीं सोयेंगी, उनके साथ संभोग नहीं करेंगीं। वे इस शांति पूर्व प्रतिरोध में शारीरिक संबंधों को हथियार के बतौर इस्तेमाल करती हैं। अंततः युद्ध स्त्रियों के इस प्रतिरोध से युद्ध टल जाता है। पर युद्ध मनुष्य जाति की हिंसक प्रवृत्ति और मर्दानगी पूर्ण दम्भ का परिणाम है। अगर यह हिंसक दम्भ समाप्त नहीं होगा तो युद्ध ऐसे ही मानवता पर थोपे जाते रहेंगे।

धर्म और औरतों पर कहर

धर्म और विशेषकर कट्टरता उस धर्म की औरतों पर कहर बनकर टूटती है।

१९६५ के आसपास जब तक अफगानिस्तान में लिबरल सरकार थी तब तक काबुल विश्वविद्यालय में छात्राएं स्कर्ट और ब्लाउज पहनकर पढ़ने आती थी। काबुल की तुलना पेरिस के आधुनिक वातावरण से की जाती थी। इन प्रगतिशील औरतों को बेटियों को तालिबान के आने के बाद से शिक्षा / संस्कृति / बाहर आना जाना बंद करा कर गुलाम बना दिया गया है।तालिबान ने अफगानिस्तान में बर्बर युग को स्थापित कर दिया है। यहां  ‘‘सहारा करीमी’’ का जिक्र बहुत जरूरी है जो तालिबान के आने के समय वहां फिल्म निर्देशक थी। उन्होंने वहां अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन किए । प्रतीक बन गई ‘प्रतिरोध और महिला अधिकारों की‧‧‧’ पर कब तक। तालिबान के दमन चक्र से बचकर उन्हें आखिरकार वहां से भागना पडा और वे कीव चली गई। कीव के एक सार्वजनिक समिट में सहारा करीमी  तालिबान द्वारा औरतों और बच्चों पर किए जा रहे अत्याचार का वर्णन करा रही है। क्रूरता की इस दास्तान को सुनकर आपका दिल दहल जाएगा। पर बात यहां खत्म नहीं होती, यूक्रेन पहुंचकर उन्होंने कहा – ‘मेरे प्यारे दोस्तों, मेरी चिंता मत करना मैं यहां सुरक्षित हूं।’ पर क्या उन्हें पता था कि जब उन्होंने कीव में स्वयं को सुरक्षित लिखा था, तब एक और युद्ध का इंतजार दुनिया कर रही थी। जहां से फिर सारी दुनिया को रूसी सैनिकों द्वारा यूक्रेनी महिलाओं पर यौन हिंसा की खबरें मिलने वाली थीं। युद्ध हमेशा औरतों का पीछा करता है।

अर्थव्यवस्था और महिलायें

हमारे देश में पिछले कुछ सालों में कोविड महामारी और अन्य कारणों से अर्थव्यवस्था चिंताजनक तौर पर कमजोर हुई है। स्वाभाविकतः इन परिस्थितियों के कारण देश भीषण बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा है। परंतु बिडम्वना यह है कि बेराजगारी की सर्वाधिक शिकार महिलाऐं ही हो रहीं है।

दुनियाभर में प्रतिष्ठित मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की २०१८ में जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि अगर भारत में स्त्री पुरुष समानता की दिशा में सकारात्मक प्रगति होती है तथा अर्थव्यवस्था और विकास की प्रक्रिया में महिलाओं की सहभागिता में बढ़ोतरी होती है तो २०२५ तक भारत की अर्थव्यवस्था ४३ लाख करोड़ की हो जाएगी। एशिया पेसिफिक में सर्वाधिक उन्नति की संभावना भारत में ही है। भारत की जीडीपी में १८ प्रतिशत की बढ़ोतरी की संभावना है परंतु भारत को अपनी वर्कफोर्स में महिलाओं की संख्या में वृद्धि करनी पड़ेगी क्योंकि अभी भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान केवल १८ प्रतिशत है और उत्पादक श्रम (वर्कफोर्स) में उनका योगदान मात्र २५ प्रतिशत है। परंतु इसके लिए कार्यस्थल पर हमें महिला हितैषी वातावरण बनाने की जरूरत है जिसमें की कार्यालय में शौचालयों  की व्यवस्था, मासिक धर्म के दौरान आराम करने की व्यवस्था या इस दौरान दो-तीन दिन का अवकाश देने की व्यवस्था (जैसा कि अभी स्पेन में किया गया है)। कार्यस्थल पर यौन दुव्र्यवहार रोकने संबंधी कानून का कडाई़ से पालन कराने की जरूरत है। एक पितृसत्तात्मक पुरुष कर्मचारी एक महिला बॉस के अधीन काम करने को अपनी मर्दानगी के खिलाफ मानता है तो फिर यह विकास की प्रक्रिया और महिलाओं की स्वाभाविक प्रगति की राह में बडा रोडा होता है।

स्त्री पुरुष समानता की राह यूं भी बहुत कठिन है क्योंकि पितृसत्ता के बंधन बहुत कसावट रखते हैं। उस पर ये प्राकृतिक या मानव निर्मित दुश्वारियां, उन्हें वापस अंधकार के गर्त में धकेल देते हैं, जहां से वापस लौटने में फिर सदियां लगती हैं। ये बात और है कि जब भी और जहां भी उन्हें अज्ञानता, शोषण, बर्बरता और गरीबी के गर्त में धकेला जाता है वह समाज भी अंततः उसी गर्त में गिरता है। परंतु क्या समाज / व्यक्ति इस अन्तः संबंध को समझता है, और खुद के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ला पाता है?

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सुरेश तोमर

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