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साथी बनिए, ख़ुदा नहीं | कंचन सिंह चौहान | Be a Partner, Not God | Kanchan Singh Chouhan

साथी बनिए, ख़ुदा नहीं

देखिये यूं सामान्य रूप से देखें तो सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी का फर्क है लेकिन मुझसे पूछिए तो जिन लोगों को भी आप डिसेब्ल्ड का नाम देते हैं, उनमें ९५ प्रतिशत से ज्यादा लोग विकलांग भले हों, डिसेबल्ड नहीं है। हो सकता है किसी दुर्घटना, किसी रोग, किसी जन्मजात शारीरिक अवस्था के कारण उनके अंग सम्पूर्ण ना हों मगर डिसेबल्ड वे कतई नहीं हैं।

डिसेबल्ड वे कतई नहीं हैं क्योंकि जहां आत्महत्या की दर हिन्दुस्तान से लेकर विश्वभर में दिन-ओ-दिन बढ़ती जा रही है, जहां लोग इसलिए आत्महत्या कर ले रहे हैं क्योंकि उन्होंने जिसे पसंद किया, उसने उन्हें नहीं पसंद किया; जहां लोग तलाक हो जाने के कारण, बच्चे ना होने के कारण, परीक्षा में मनपसंद अंक ना पाने के कारण जिदगी खतम कर लेते हैं, वहां वे लोग जिन्हें आप विकलांग कहते हैं वे अपने आधे-अधूरे शरीर के साथ सुबह मुस्कुराकर उठते हैं, मरने के लिए नहीं, जीने के लिए।

जहां बड़े-बड़े काउंसलर्स धनाढ्यों को मोटी-मोटी फीस लेकर बताते हैं कि आपको जीना चाहिए क्योंकि आपके पास जीने के कई कारण हैं लेकिन फिर भी वे एक दिन मरना चुन लेते हैं, वहां डिसेब्ल्ड कहे जाने उन लोगों को सड़क चलते लोग बिना किसी फीस सलाह देते हैं कि आप को मर जाना चाहिए क्योंकि आपके पास अगर पूर्ण शरीर नहीं है तो आपको दूसरों पर बोझ बनकर जीने का हक नहीं है लेकिन फिर भी वे उनकी सलाह को अनसुना कर जिंदगी जीना चुनते हैं।

हिंदुस्तान हो या विश्व हर जगह विकलांगता के कारण आत्महत्या करने का प्रतिशत बहुत कम है। जानते हैं क्यों? क्योंकि कमजोरियों में बड़ी ताकत होती है।

देखा है ना कमजोर सी चीटी बिना किसी भय कैसे जगह-जगह घूमती रहती है, सडकों पर, पहाड़ों पर, दरख्तों पर, उसे जरा सा डर नहीं कि इस भीड़ में जहां आदमी, आदमी को कुचलता आगे बढ़ जा रहा, वहां उस सूक्ष्म जीव का क्या होगा? लेकिन करे तो क्या? विकल्प क्या है? और कई बार विकल्पहीनता बहुत साहसी बना देती है।

अपनी कमजोरी के साथ वे तथाकथित डिसेबल्ड लोगों के लिए इन भीड़ भरी सड़कों पर, एक दूसरे को धक्का देकर आगे बढ़ते लोगों के बीच कोई अलग सड़क नहीं है। वे अपने अधूरे शरीर के साथ इसी सड़क पर मंजिल की खोज में निकलते हैं, गिरते हैं, कुचले जाते हैं लेकिन घर में नहीं बैठते।

झूठ, फरेब, भ्रष्टाचार, लूट-मार, चोरी-डकैती से भरी इस दुनिया में उनके जीने के लिए कोई अलग समाज नहीं बनाया गया है बल्कि हां यही समाज उनके लिए अलग इस तरह जरूर हो जाता है कि वे कहीं भी जायें उनका आंकलन बिना किसी साक्षात्कार के उनकी शारीरिक स्थिति से कर लिया जाता है, ये बेचारा कमजोर है‧‧‧ ये बेचारा कैसे कर पायेगा? लेकिन वे उनकी बातों को इग्नोर करते हुए, धता बताते हुए, वो सब करते हैं जो बेचारा बताने वालों से बेहतर।

इसलिए कहना पड़ता है THEY ARE NOT DISABLED RATHER THEY ARE ACTUAL CAPABLES…

जीवन में विकलांगता के प्रवेश के साथ ही हमने तो खुद ही सीख लिया कि हमें अधिक से अधिक स्वावलंबी बनना है। दूसरों से कम से कम सहायता लेनी है। अपने आत्मसम्मान का खयाल रखना है। कमतर लोगों का इस दुनिया में गुजारा नहीं और हमें तो बेहतर सिद्ध करना है खुद को क्योंकि बेहतर हुए बिना कोई हमें अवसर ही नहीं देगा। हमें बराबरी के लिए ही दोगुनी-तिगुनी मेहनत करनी है तो बेहतरी के लिए तो चौगुनी मेहनत करनी होगी लेकिन कुछ भी करना पड़े हमें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है।

हम अपनी २०० प्रतिशत मेहनत के साथ आपके साथ खड़े होना चाहते हैं लेकिन आप बताएं इतने दिनों मे कभी आपने भी कुछ ऐसा किया जिससे हमें महसूस हो कि आपके बराबर हैं, कमतर नहीं।

नहीं‧‧‧ असल में ऐसा नहीं हुआ। हुआ यह कि पंडित जी ने ग्रह शांति के लिए चार उपाय बताए आपको। उसमें बताया गाय को रोटी देना, बंदर को चने खिलाना, काले कुत्ते को रोटी देना, अपाहिजों की सेवा करना।

आपने किसी का हाथ पकड़कर जरा सा रास्ता पार कराया और किसी की व्हीलचेयर को धक्का लगाया। आपको लगा बस ग्रह शांति का सबसे कामगार उपाय हो गया। आपने दो बार खुद समझा, चार बार हमको समझाया कि आपने आज बहुत बडा पुण्य किया और बहुत बडा सामाजिक दायित्व निभाया।

गाय, बंदर और कुत्ते को कैसा लगता है इस पुण्य कर्म का हिस्सा बनते हुए मुझे नहीं पता लेकिन विकलांग होने के कारण विकलांग को आपके पुण्य का कारक बनना, एक विकलांग का आत्मविश्वास कितना कमजोर करता है यह बात जरूर पता है मुझे।

दुनिया का कौन सा व्यक्ति है जो आपसी सामंजस्य और मदद के बगैर जीवित हो। याद कीजिये उस दोस्त को जिसने ऐन परीक्षा के समय खत्म रिफिल वाली आपकी कलम को देख आपको अपने पास रखी अतिरिक्त कलम निकाल कर दे दी हो।

लम्बे सफर की उस प्यास को याद कीजिये जब स्थिति असह्य हो जाने पर आपने अपने सहयात्री से कहा हो, भाईसाहब जरा सा पानी मिलेगा? और उसने पास रखे अतिरिक्त ग्लास में करीने से पानी और डिब्बे में रखा पेठा निकालकर आपकी तरफ यह कहकर बढा ़दिया हो, कुछ खाकर पीजिये पानी वरना नुकसान कर जायेगा।

आप खुद में ही कितने कृत-कृत्य हो गए होंगे‧‧‧ हमेशा को कृतज्ञ लेकिन यही कलम देनेवाला या पानी देनेवाला अगर इस भाव या वक्तव्य के साथ आपको कलम या पानी दे कि आप बहुत बेचारगी की स्थिति में थे उसने आप को पानी पिलाकर जीवनभर के लिए ऋणी बना दिया या पानी देने के साथ वह आपको यह अहसास दिलाये कि आप जैसे बेचारे व्यक्ति को पानी पिलाना दुनिया का सबसे बडा ़पुण्य था, आपको पानी पिलाकर धार्मिक कार्य करने का अपना कर्तव्य अभी-अभी पूरा हो गया या कलम देकर / पानी पिलाकर वह व्यक्ति ईश्वर के लगभग समकक्ष हो गया, आत्म गौरव के बोध से फूला उसका सीना आपको बताने लगे कि आप जैसे हीन का होना उस जैसे महान के कारण ही संभव हुआ तो कैसा लगेगा आपको?

क्या आपको नहीं लगेगा कि परीक्षा में फेल हो जाना इस व्यक्ति के सामने रिफिल खत्म हो जाने से बेहतर था या फिर उस असाह्य प्यास को दो घंटे और बर्दाश्त कर लेना इस कमतरी के अहसास से दब जाने से ज्यादा आसन था?

बस यही लगता है हमें भी। हमें लगता है कि घर से बाहर निकलकर हर व्यक्ति की निगाह में दया और बेचारगी का भाव देखने से बेहतर है कि सफर पर निकला ही ना जाए।

व्यक्तित्व निर्माण की कक्षाओं मे बताया जाता है कि अनलर्निंग और रिलर्निंग की प्रक्रिया लर्निंग से कम महत्वपूर्ण प्रक्रिया नहीं है।

विकलांगता के लिए जो व्यवहार सीखा गया उसमें बहुत कुछ अनलर्न और रिलर्न करने की आवश्यकता है।

सह अनुभूति तो बडा ़प्यारा भाव है। किसी की समस्या को उसके साथ, उसके स्तर पर जाकर महसूस करना। आपकी सहानुभूति से विकलांग व्यक्ति को कोई गुरेज नहीं। लेकिन आप हमारी समस्या को हमारे स्तर पर महसूस कर व्यवहार नहीं करते बल्कि आप हमें महसूस कराते हैं कि हम बहुत अजीब, बेचारे और निरीह हैं।

हमारा आत्मविश्वास कम करते हैं।

हमारी तरफ उस तरह हाथ बढाइ़ए जिस तरह एक मनुष्य मनुष्य की तरफ बढात़ा है। हमें बराबर का दर्जा दीजिये, हीन मत महसूस कराइए।

बना सकें तो ऐसा माहौल बनाइए कि हमें आपकी सहायता की जरूरत ही ना पड़े। रैंप के ठीक सामने अपनी गाड़ी पार्क करके हमारी राह का भारी  पत्थर मत बनिए। विकलांग पार्किंग में अपनी गाड़ी खड़ी करके हमारी समस्या मत बढाइ़ए।

अगर आप डॉक्टर हैं तो अपना क्लीनिक खोलने के पहले ध्यान रखिये कि विकलांग भी आपके ही मरीज हैं। स्वास्थ्य सुविधा मूल आवश्यकता है। अपनी क्लीनिक, डिस्पेंसरी, अस्पताल में उनके प्रवेश के रास्ते सुगम बनाइए। अगर आप एक अच्छे नागरिक हैं तो किसी क्लीनिक डिस्पेंसरी, अस्पताल के व्हीलचेयर एक्सेसिबल ना होने पर आवाज उठाइए।

उन पैथालॉजियों के बाथरूम याद करिये जहां अल्ट्रासाउंड के लिए भरे गए ब्लेडर को खाली करने गये हों, उनमें से कितने बाथरूम व्हीलचेयर एक्सेसिबल हैं? सोचिए विकलांग व्यक्ति कैसे आत्मनिर्भरता के साथ जा कर अपनी जांच कराये?

एटीएम मशीनों को देखिये क्या ये नेत्रहीनों के लिए आसान हैं? उनके प्रवेश द्वार देखिये, क्या ये व्हीलचेयर हेतु सुगम्य हैं?

बैंकों को देखिये, बसों को देखिये, ट्रेनों को देखिये, ग्रोसरी की दुकानों को देखिये‧‧‧ अगर सच में कुछ कर सकते हैं तो इन रास्तों पर चलते हुए हमारे बारे में सोचते हुए चलिए। जहां-जहां सम्भव हो वहां-वहां हमारे हिस्से की आवाज उठाइए। हमारी आत्मनिर्भरता के हिस्सेदार।

हर शहर के हजार लोग मिलकर अगर सिर्फ सौ जगहों सुगम्य बनाने की सोच लें ना तो हमारी ९० प्रतिशत परेशानी खत्म हो जाएगी। आत्मनिर्भर बनाने से बडा साथ कौनसा साथ होगा।

किसी व्हीलचेयर को पुश कर देने, किसी नेत्रहीन का हाथ पकड़कर रास्ता पार करा देने, किसी मूक की बात समझकर किसी और को समझा देना उतना ही साधारण सहयोग और सामाजिक सामंजस्यता समझिए जितना पड़ोसी के बाहर चले जाने पर उसके घर के गमलों में पानी डाल देना। पैतृक निवास भ्रमण पीआर गए दोस्त के घर की चाभी अपने पास रख लेना। दोस्त के काम में अटके होने पर उसके बच्चे को स्कूल से लेना चले जाना।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हम भी मनुष्य ही हैं। समाज सामंजस्य, साथ और सहयोग से चलता है अहसानों और वरिष्ठता बोध से नहीं।

हमें भी सामंजस्य, साथ और सहयोग चाहिए, अहसान और खुद मे कमतरी का अहसास नहीं। हमारे साथी बनिये, खुदा नहीं।

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 कंचन सिंह चौहान

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