दु‌निया | travel the world

बगैर पैसे दु‌निया का चक्कर | विष्णुदास शेषराव चापके | Circling the world without money | Vishnudas Sheshrao Chapke

बगैर पैसे दुनिया का चक्कर

 

समझाइशें और चेतावनियां, वीसा नदारद और जेब बिल्कुल खाली –  मुंबई के इस 39 वर्षीय जर्नलिस्ट ने जब विश्व परिक्रमा शुरू की थीं, तब उनका लक्ष्य था सड़क मार्ग से दुनिया का चक्कर लगाने वाला पहला भारतीय बनना। तीन वर्ष में उन्होंने यह विश्व परिक्रमा बगैर कोई प्लॉन बनाए और क्राउड फंडिंग व अनजान लोगों की मदद के सहारे लिफ्ट लेकर और बस, कार, मोटरबाइक और ट्रेनों से की। यात्रा के रोमांचक अनुभवों के बारे में उनका विशेष लेख –

 

जब जान जाते-जाते बची

चिली के देहाती इलाके में था, तभी एक शख्स मेरे पास आया और बोला-‘गलत रास्ते जा रहे हो। चलो, सही रास्ता बताता हूं।’ कुछ ही देर बाद मेरे पेट पर एक चाकू सटा हुआ था और वह धमका रहा था, ‘जो कुछ पास है निकाल दो।’ मैंने कुछ मनी झाड़ी में फेकी और दौड़ निकला। पर उसने पकड़ लिया और बैग मांगा, जिसमें लैपटॉप, पासपोर्ट, एटीएम कार्ड-मेरा सबकुछ था। छीना-झपटी हुई, जिसमें बैग फट गया। मेरे भाग्य से एक वाहन वहां से गुजर रहा था। उन लोगों ने उचक्के को दौडाक़र पकड़ लिया। चलते रास्ते ठगी और लूट-पाट-इन यात्राओं में ऐसी घटनाएं कितनी ही बार घटीं। 16 घटनाएं तो ऐसी हुईं, जब मेरी जान भी जा सकती थी। निकारागुआ से होंडुरास की सीमा तक मेरा पीछा किया गया। ब्राजील से मैक्सिको तक हमेशा डर लगता रहा कि कहीं किसी ने कुछ गलत चीज बैग में डाल दी तो मेरी बाकी जिंदगी जेल में ही चक्की पीसते बीत जाएगी। मोबाइल तो कितने ही चोरी हुए या लूट लिये गए। इस वजह से कई बार जरूरत होने पर मैं पुलिस या अस्पताल की मदद भी नहीं ले सका।

शंघाई स्टेशन की वह रात!

चीन में शंघाई पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। स्टेशन बाहर पीठ टिकाई ही थी कि देखा दो कॉन्स्टेबल सिर पर – ‘बच्चू, यहां चोरों का बसेरा है। यहां सोओगे तो सुबह कुछ नहीं मिलेगा।’ नसीहत मिलते ही मैंने मोबाइल और पासपोर्ट वाला अल्फा पाउच बांहों के नीचे दबाया और एक बैग सिर के नीचे व दूसरा पैरों के बीच दबाकर खर्राटे मारने लगा। नींद टूटी सुबह ठीक छह बजे पुलिस वैन के हॉर्न के साथ। देखा तो रात वाला वहीं पुलिसमैन। मैंने हाथ हिलाकर ‘चा चा ची या’ (विदा) कहा, तो उसका चेहरा खिल उठा।

खाली हाथ लौटा तो टांग तोड़ दूंगी

अपनी यह विश्वयात्रा मैंने 60000 रुपये से शुरू की थी, जो मेरी अपनी बचत थी। बाकी का जुगाड़ क्राउडफंडिंग से हुआ। इस लंबी यात्रा में कई बार पैसों की दिक्कत पेश आई। छह बार ऐसा हुआ, जब मेरे पास जेब में दस डॉलर भी नहीं होते थे। मेरा फॉरेन ट्रैवेल कार्ड कई बार ब्लॉक हो गया। मेलबोर्न, शंघाई, हो चि मिन्ह, सांतियोगो, मैक्सिको सिटी और तेहरान में तो मेरे पास अगले खाने के पैसे भी नहीं थे। भारत सरकार ने जब नोटबंदी की घोषणा कर दी मैं आस्ट्रेलिया में था। लौटने की सोचने लगा था कि तभी आई का फोन आया – ‘खाली हाथ लौटा तो टांग तोड़ दूंगी।’ कठिन वक्त था, किसी तरह निकल ही गया।

मेरा रूटीन था कि सुबह नहा-धोकर, योग करके और अंकुरित अनाज खाकर निकल पड़ता था। पीठ पीछे कार्डबोर्ड पर जाने वाली जगह का नाम लिखा होता था, जिसे देखकर लोग आप से आप गाड़ी रोककर लिफ्ट दे देते थे। फेसबुक पर मेरी रिक्वेस्ट देखकर अनजाने लोग मदद के लिए आते और मेरे ठहरने और खाने का बंदोबस्त हो जाता। नहीं होने पर मैंने अनगिनत रातें बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन, फुटपाथ पर, गुरुद्वारों और चर्चों में गुजारी हैं।

अपनी यात्रा के लिए मैं लोगों को जितना शुक्रिया अदा करूं कम है। विश्व भर में फैले दोस्त सोशल मीडिया के जरिए लगातार जुड़े रहे। संकट से निकलने में मुंबई प्रेस क्लब से लेकर भारतीय दूतावास और ओबामा फाउंडेशन से लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से भी मदद मिली। एक दोस्त ने अपनी पहली सैलरी मुझे दे दी। एक पत्रकार मित्र ने अखबार में मेरे बारे में लिखा, जिसे पढ़कर पाठकों ने पैसे भेजे। सबसे कीमती थी, एक नन्ही बच्ची की 10 रुपये की सेविंग। टाटा ट्रस्ट से भी बेशकीमती 15 लाख रुपये की मदद मिली, जिसमें से पांच लाख रुपये बचाकर मैंने लौटा भी दिए।

जीवन साथी भी मिला

मध्य एशिया और चीन की जमा देने वाली सर्दी। होंडुरास में तपती धूप में चलते बदन पर पड़े फफोले। फूड प्वायजनिंग और बीमारियां। सेहत के लिहाज से विश्व यात्रा के दौरान जो परेशानियां हुईं उन्हें सोचकर आज भी खौफ हो आता है। परम वैष्णव होने के बावजूद मुझे अंडा और आदिवासियों द्वारा धमकाए जाने पर मांस भी खाना पडा,़ जिसके बाद मैं बीमार पड़ गया। उजबेकिस्तान में तो ऐसी फूड पॉइजनिंग हुई कि मैं पानी भी नहीं पचा सकता था। हड्डी जमा देने वाली सर्दी। दर्द और दस्त से बुरा हाल। दवा नहीं, देखभाल करने वाला भी कोई नहीं। पुराने से एक मकान में टी‧ वी‧ देखते मैं चार दिन लगभग टॉयलेट सीट पर ही बैठा रहा। बार-बार पेरेंट्स का उदास चेहरा जेहन में आता। कुछ खाया नहीं तो घर कैसे पहुंचूंगा यह सोचकर पांचवें दिन बहुत हिम्मत जुटाकर बगल के रेस्त्रां में गया और कुछ चम्मच चावल खाए। एक हफ्ते बाद कद्दू का जूस। और मैं बच गया।

2018 में मैक्सिको सिटी में वायरस के हमले से मैं मरते-मरते ही बचा। टॉयलेट में जब भी जाता हर ओर खून ही खून दिखाई देता। ऐसे में मेरी दोस्त लिलियन मुझे अस्पताल ले गई, जहां मुझे क्वारंटाइन करके रखा गया था। लिलियन ने मेरी जान ही नहीं बचाई, घर भी ले गई। हमने तभी तय कर लिया था कि जीवन में भी हमसफर बनेंगे। आज वे मेरी पत्नी हैं। आस्ट्रेलिया में एक बार जिससे लिफ्ट ली वह खिसके दिमाग का निकला।‌ बगैर किसी खाने या पानी के गाड़ी में रिजर्व पेट्रोल और बगैर नेटवर्क वाले मोबाइल के साथ निकला यह बावला हजारों किलोमीटर फैले रेगिस्तान में खजाने की तलाश में निकला था और साथ हो लिया था मैं नसीब का मारा!

काम करके खर्च निकाला

यात्रा में मैंने अपने लिए कुछ नियम बनाए थे। पहला यह कि मुफ्त में कुछ नहीं लूंगा। इसलिए जहां भी मैं ठहरता था सफाई हो, मरम्मत हो, खरीदारी या रखवाली-मेजबानों के काम में हाथ जरूर बंटाता। सोने की जगह और नाश्ते के लिए मैं रिसेप्शनिस्ट बना, अंग्रेजी पढाई़, क्लीनिंग व कुकिंग की, पेरू के माचू पिच्चू और बोलिविया के सैंटा क्रुज में योग सिखाया, यहां तक कि बेबी सीटिंग भी की। लौटते वक्त उनके अहाते में पौधे के रूप में अपनी निशानी छोड़ आता। यूनाइटेड नेशंस इनवॉयरनमेंट असेंबली के अध्यक्ष चिली की राष्ट्रपति और दुनिया भर के देशों के पर्यावरण मंत्रियों के साथ मैने पेड़ लगाए हैं।

जनवरी, 2017 में दक्षिणी चिली की जंगलों में विकराल आग के कारण नेशनल इमरजेंसी घोषित कर दी गई थी, तब वहां मैं राहत सामग्री बांटने से लेकर मेडिकल टीम की मदद में जुट हुआ था। जून, 2018 में ग्वाटेमाला में ज्वालामुखी फटा तब मैं वहीं था। वहां भी स्थानीय छात्रों के साथ मैं वालंटियर बनकर।

वीजा नहीं मिला

जब मैं लगभग सारे विश्व की परिक्रमा करते अंतिम दौर में ईरान पहुंचा तो अपना देश केवल 1550 किलोमीटर दूर था। घर वाले मुझे लेने वाघा बार्डर आ ही रहे थे कि पाकिस्तान ने वीसा देने से मना कर दिया। मुझे नहीं मालूम था कि चीन तिब्बत के रास्ते विदेशियों को आने नहीं देता। लिहाजा, वहां का वीजा न मिलने से मुझे छह वीजा की जरूरत पड़ गई और 1550 किलोमीटर की यह यात्रा बढ़कर 15332 किलोमीटर की हो गई। जब मैं भारत से चला था पास में केवल म्यांमार और थाइलैंड का वीजा था। इसके बाद हर वीजा के लिए मुझे अप्लाई करके इंतजार करना पड़ता था। ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और कनाडा ही नहीं, इक्वाडोर और कोलंबिया ने भी मेरी ऐप्लीकेशंस रिजेक्ट कर दीं। दुनिया में दूसरे नंबर का गरीब देश माने जाने वाले निकारागुआ तक ने इसे मंजूर करने में 60 दिन लगा दिए। म्यांमार की तो सीमा ही बंद मिली। नौ महीने में समुद्र के रास्ते समूची पृथ्वी की परिक्रमा की जा सकती है, पर एक समय ऐसा था, जब 10 महीने मैं केवल तीन देशों में अटका रहा गया।

मेरा यह अभियान बीते अब पांच साल का होने को है। 19 मार्च, 2016 को घर से निकलते समय मैने आई -दादा को बोला था कि तीन महीने में वापस आ जाऊंगा, पर मैं लौटा 21 मार्च, 2019 को। पूरे तीन साल बाद। याद नहीं, इस दौरान कभी मैने अगले तीन दिन से ज्यादा प्लान किया हो। कुछ अनुभव ऐसे हैं, जिनसे सीख लेनी है और कुछ ऐसे जिन्हें भुला देना ही बेहतर है। मेरी झोली में सबसे ज्यादा यादें मुस्कुराने और संजो रखने लायक हैं।

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विष्णुदास शेषराव चापके

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