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आजादी के बाद बदलता समाज और साहित्य और स्त्री लेखन की चुनौतियां | गीताश्री | Changing society after independence and challenges of literature and women’s writing | Geetashri

आजादी के बाद बदलता समाज और साहित्य और स्त्री लेखन की चुनौतियां

 

‘कोई औरत कलम उठाए

इतना दीठ जीव कहलाए

उसकी गलती सुधर न पाए

उसके तो लेखे तो बस ये है

पहने-ओढ़े, नाचे गाए‧‧‧’

—-(वर्जिनिया वुल्फ)

प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ ने जिन दिनों औरत और कथा साहित्य विषय पर भाषण देने की तैयारी कर रही थीं तब जो उन्हें सदमा लगा होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है। उस समय यह विषय जितना चुनौतीपूर्ण था, आजादी के चौहत्तर साल के बाद भी यह विषय उतना ही चुनौतीपूर्ण है। स्त्री लेखन के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। सवालों के कटघरे हैं। आरोपों की बौछार है और खारिजों का इतिहास है।

यह बहुत व्यापक और जरूरी प्रश्न है जिससे मौजूदा समय को जरूर जूझना चाहिए। वुल्फ ने उस दौरान पाया कि औरतों को लेकर पढ़े लिखे मर्दवादी समाज की सोच बहुत घटिया थी। वे सोचते थे कि औरतों का कथा साहित्य से क्या लेना देना। उन्हें अभिव्यक्ति की न आजादी थी न मौका था। न उनके भीतर चाहत जोर मार रही थी। कमतरी का अहसास औरतों में कूट कूट कर भर दिया गया था। उस दौर के बड़े बड़े विद्वान औरतों के बारे में अपनी बहुत घटिया राय व्यक्त करते थे। पश्चिम के कुछ पुस्तकालयों में औरतों को अकेले घुसने तक की मनाही थी। वही औरतें जब लेखन करने लगीं तो उन्हें वहां का समाज ‘लिखने की खुजली वाली कुलीना’ कहकर उनका मजाक उडाय़ा।

पश्चिम का समाज हो या पूरब का। पुरुष सत्ता को पढ़ी-लिखी स्त्रियों से हमेशा खतरा महसूस हुआ है। आजादी के बाद स्त्री शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। ये समाज की मजबूरी थी ताकि उनके बाल-बच्‍चे ठीक से पले-बढ़ें। उन्हें तब अहसास कहां था कि ये पढ़ी़-लिखी स्त्रियां एक दिन दुनिया बदल देंगी। आजादी से पहले जो लेखिकाएं नाम बदल कर लिख रही थी, गुपचुप लेखन करती थीं या बाला-बोधिनी बना दी गयीं थीं, वे सब अचानक से आक्रामक हुईं, सजग हुईं। वे नाम से लेखन करने लगीं। देश की आजाद़ी ने वंचितों को सबसे ज्यादा सशक्त किया। उन्हें तब अहसास न था कि एक दिन पढ़ने से आगे निकल कर लिखने लगेंगी। शिक्षा ने उनकी चेतना को इतना जाग्रत कर दिया कि वे अपनी जुबान में बोलना और लिखना सीख गईं।

 अपने भीतर की गूंगी गुड़िया को मारकर अपने लिए एक कोना तलाश रही इसी ढीठ स्त्री ने कलम क्या पकड़ी, अपने मन का लिखना क्या शुरू किया, हलचल-सी मच गयी। जैसे ही उसने युगों युगों से सोई चेतना को जगाया, उसके आसमान को अपने मुट्ठी भर सितारों से सजाया, स्थापित मठों में खलबली मच गई। जैसे ही उसने अपने अनुभवों को अपने नए शिल्प और कथ्य में कहना शुरू किया, वैसे ही साहित्य की दुनिया में प्रश्नों के गोले चलने लगे। बाहरी दुनिया से कटी हुई औरतें सपने भी घर आंगन के ही देखा करती थीं। उनके बारे में पुरुषों ने जो लिखा, उसी से उन्होंने खुद को जाना। अपनी खोज खु़द की ही नहीं। जब चेतना जागी और खुद को एक्सप्लोर करना शुरु किया तो हंगामा स्वाभाविक था। उनकी बनाई सारी छवियां ध्वस्त हो गईं। सारा फरेब सामने आ गया। कैसा महसूस किया होगा उस पहली स्त्री ने जब पन्ने पर कुछ लिखा होगा‧‧‧

निर्भय तो वह तब भी नहीं रही होगी। कांपते हाथों ने रचे होंगे कुछ शब्द पहली बार‧‧उसकी खुशबू में नन्हें शिशु के बदन-सी खुशबू होगी। अपनी रचना को लेकर मन दहलता तो होगा । क्योंकि उसके लिए आसान नहीं अपना किला बनाना। चौखट से बाहर पैर और पन्ने पर पहली इबारत उसकी मुसीबतों का आगाज है। अपने से कमतर समझने वाले मर्दवादी समाज ने स्त्री को जैसे ही अधिक शिक्षित, तार्किक, या बुद्धिमान पाया वैसे ही उसमें अंदर ही अंदर एक खतरा उत्पन्न हुआ, क्योंकि पुरुष स्वभावतः सुप्रीमो-सिंड्रोम से भरा होता है।

जब सदियों से उसने स्त्री को अपनी संपत्ति समझा है तो कैसे उसे बर्दाश्त होगा कि उससे कमतर, उसके साथ बैठकर उससे साहित्य या कला या कहानी आदि के बारे में बात करे? और जब होगा तब वह उसे खारिज करेगा। वह उसे समकालीन मुद्दों या समकालीन समस्याओं पर बात करने से भयभीत होने वाली बताएगा? वह साहित्य में कदम रख रही या साहित्यरत स्त्रियों को बौद्धिकता की कसौटी पर हराने की बात करेगा!  आज स्त्री साहित्य में अपने मन की बात कहने के लिए पुरुष की अनुमति की चाह नहीं रखती है। ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, या ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’, से कहीं आगे आकर स्त्री अब अपने मन की आकांक्षाएं लिखने में विश्वास करने लगी है। वह अपने मन का आसमान रंगने लगी है, तो शोर तो होना ही था।

कमाल है, नख और शिख का वर्णन किया आपने, स्त्री देह के कोने कोने को परखने के बाद अपनी रचनाओं में जी भर कर लिखा आपने, पर देह के उपयोग का आरोप लगाकर लेखन को बाधित करने का आरोप लगा स्त्रियों पर? अगर पुरुषों ने कोख के अधिकार या विवाह के बाद यौन स्वतंत्रता पर लिखा तो उन्हें आदर्श या क्रांतिकारी माना गया पर यही कोख का अधिकार अगर स्त्री अपने लेखन में करती है तो उसे समाज को तोड़ने वाली, परिवार संस्था पर प्रहार करने वाली, स्त्री के अधिकारों पर डाका डालने वाली कहा जाता है! उसे देह के आगोश में आगे बढ़ने वाली कहकर बार बार हतोत्साहित किया जाता है। तब सवाल उठता है कि आखिर क्यों? आखिर क्यों बार बार स्त्री लेखन सीता की तरह अग्निपरीक्षा देगा? स्त्री लेखन पर सवाल उठाना आज सबसे आसान काम है। क्योंकि जो जागृत चेतना है उसे जब आप सहन नहीं कर सकते हैं, और जब आप उससे मुकाबला नहीं कर सकते हैं तो आपको उसे दबाने में ही आपको अपना भला नजर आएगा।

अगर नहीं दबा पाएंगे तो आपने अनुकूलता के लिए बहुत ही अच्छे जुमले गढ़े हैं – ‘अमुक महिला का लेखन तो स्त्री लेखन जैसा लगता ही नहीं है, यह तो एकदम पुरुष लेखन  के जैसा है।’ इसका अर्थ यह हुआ कि पहले तो स्त्री लेखन को आपने पहचान दी नहीं और जब पहचान दी तो उसे केवल अपने ही दायरे में बांधकर रख दिया? कथा साहित्य में इस समय लेखिकाएं बहुतायत में है, काफी लिखा जा रहा है, हर विषय पर लिखा जा रहा है, फिर भी स्त्रियों का लेखन मुख्‍यधारा का क्यों नहीं माना जाता? शायद अभी भी श्रेष्ठ भाव से ग्रसित स्त्री लेखन को उसी पूर्वाग्रह के नजरिये से देखते हैं कि पहला स्त्री मौलिक लेखन नहीं कर सकती और दूसरा स्त्री घर की चहारदीवारी से आगे नहीं निकल सकती।

स्त्री-लेखन में लेखिका के पति या किसी पुरुष साथी से जोड़कर देखा जाता है, उस सृजन के लिए जो नितांत उस स्त्री का है। चूंकि स्त्री मौलिक नहीं लिख सकती है तो उसके लेखन की प्रेरणा तो कोई होगी ही न! और जब स्त्री लेखन पर यह आरोप लगता है कि वह रसोई और स्त्री पुरुष संबंधों से अलग विषयों पर नहीं लिख सकती तो यह कहा जा सकता है स्त्री लेखन में यदि दांपत्य जीवन, विवाहेतर संबंधों, पारिवारिक मूल्य, निज स्वतंत्रता आदि विषय हैं तो यह होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि इन विषयों को ही स्त्रियों ने देखा है, बचपन से भोगा है। यही तो स्त्रियों का टपकता हुआ घाव है। ऐसी कहानियां लिखकर आने वाली  पीढ़ियों को सतर्क और सजग भी किया है।

स्त्री लेखन को नकारा जाना आज भी उतना ही प्रचलित है जितना पहले था, उसे पुरुषवादी मानसिकता से स्वीकृति लेनी ही चाहिए, नहीं तो घर परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए मजबूरन लेखिका की श्रेणी में तो डाल दिया जाता है परन्तु उसकी सफलता के लिए जब ‘अमुक महिला एकदम पुरुषों-सा रच रही है’ का दायरा हो जाता है तो ऐसा लगता है कि स्त्रियों का तमाम संघर्ष इसी एक पंक्ति पर दम तोड़ देता है, और वर्चस्ववाद जीत जाता है।

आवश्यकता है कि अब स्त्रियां जिस प्रकार कथा, कविता में आ रही हैं उसी प्रकार आलोचना में भी आएं, आलोचना के अपने मानदंड घोषित करें। अनंत संभावनाएं हैं। स्त्री लेखन को अलग से चिन्हित करने को लेकर भी लेखिकाओं में मत-भिन्नता है। वे चाहे कितना भी प्रतिरोध जताएं कि स्त्री लेखन को मुख्‍यधारा के साहित्य से जोड़कर देखें, उन्हें अलग से ही चिन्हित किया जाता रहेगा। पत्रिकाओं के निकलने वाले स्त्री लेखन विशेषांक इस बात की तस्‍दीक करते हैं।

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गीताश्री

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार एवम् कथाकार हैं)

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