संगीत | music

काशी के कण-कण में संगीत | विमल मिश्र | Everything in Kashi is infused with music | Vimal Mishra

काशी के कण-कण में संगीत

दो वर्ष हुए, जब यूनेस्को ने काशी को वैश्विक संगीत नगरोंकी अपनी दुर्लभ सूची में स्थान दिया। पिछले दिनों उसने संगीत प्रेमियों के लिहाज से विश्व के पचास अव्वल शहरों में भी स्थान बना लिया है। काशी के कण-कण में संगीत है। संगीत की कितनी ही विधाएं अपने जन्म और विकास के लिए उसकी ऋणी हैं। काशी ने केवल संगीत के क्षेत्र में देश को तीन भारत रत्नदिए हैं। बता रहे हैं पत्रकार स्तंभकार लेखक –

वेद ऋचाओं की जन्मभूमि होने के नाते काशी संगीत की जन्मभूमि है। माता सरस्वती शारदा की वीणा और संगीत के आदि ग्रंथ ब्रह्मा के सामगान का स्थान। शिव के तांडव की लीलाभूमि। नट और नाट्य की इस नाद-ब्रह्ममयी नगरी के देवता स्वयं नटराज हैं, जिन्होंने अपने डमरू से सप्त स्वर, तीन ताल, 22श्रुतियों, रस, ताल और राग को जन्म दिया। यह वह नगर है, जहां की गलियों में संगीत वेदमंत्रों के साथ आत्मा की तरह बसता है। सूर, कबीर और मीरा के भजनों के साथ मृदंगवादन और गोस्वामी तुलसीदास की रामलीला और कृष्णलीला से खंजड़ी, इकतारा, ढोल और मजीरा, जैसे वाद्य प्रच‌लित हुए। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने यहां हवेली संगीत सुनाया और चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन। भक्ति आंदोलन के दौरान कबीर, रामदास, मीरा आदि ने अपने भजन-कीर्तनों से भक्ति की अविरल धारा बहाई।

वैश्विक संगीत नगर

काशी के कण-कण में संगीत बसा है। संगीत प्रेमियों के लिहाज से हाल में विख्यात ‘सीटपिक’ संस्थान ने हाल में काशी को विश्व के पचास अव्वल शहरों में जगह नवाजी है, जबकि यूनेस्को ने उसे विश्व के ‘संगीत नगरों’ की अपनी दुर्लभ सूची में स्थान दिया है। काशी के नाम संगीत में दो विश्व कीर्तिमान हैं। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस का 138 घंटे, 41 मिनट 2 सेकेंड लंबा ऑडियो पाठ विश्व में सबसे लंबे गाने और सोनी चौरसिया का रोलर स्केट्स पर लगातार 124 घंटे नृत्य इस रूप में सबसे लंबे नृत्य के रूप में ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज है।

देश का सबसे पुराना संगीत समारोह

तुलसी घाट पर महाशिवरात्रि का वार्षिक ध्रुपद सम्मेलन सुनने आए रिक्शेवाले को भी आप तबले की धुन पर ताल देते देख सकते हैं। दरअसल, देश में ऐसी कोई जगह नहीं, जहां आम आदमी शास्त्रीय संगीत इतने चाव से सुनता हो। यहां का अस्सी घाट हर सुबह सजने वाले मंच को एक नया कलाकार देता है। कार्तिक माह का गंगा महोत्सव और 100 वर्ष पुराने काशी संगीत समाज के संगीत शो जैसे आयोजन काशी को कभी बेसुरा नहीं होने देते। 1923में संकट मोचन मंदिर के महंत अमरनाथ मिश्र द्वारा आरंभ सात दिन चलने वाला, सौ वर्ष पुराना संकटमोचन संगीत समारोह देश का सबसे पुराना संगीत समारोह है, जिसमें हिंदुस्तानी और कर्नाटक शैली के देशभर के सबसे सुनाम 100 के ज्यादा गायक, वादक और नर्तक भाग लेते हैं। बगैर कोई फीस लिये। यह शायद पहला शहर होगा, जिसका अपना ‘हेरिटेज म्यूजिक वॉक’ है।

देवी-देवताओं के स्तुतिगीतों के साथ, पूजा स्थलों, शुभ संस्कारों से संबंधित गंगा-पुजैया जैसे गीत, मनौतियों व अभ्यर्थना गीत, मेलों, उत्सवों, व व्रतों, आदि से संबंद्ध गीत-लोक संस्कारों और लोक परंपराओं से अुनप्राणित काशी के लोकगीत स्थानिकता के साथ आंचलिकता के रंग में रंगे हैं। संगीत की हर विधा और शैली को अपनाकर उसमें बनारसीपन का अलग रंग भरना काशी के संगीतकारों की विशेषता रही है। तबला और सारंगी-दोनों संगत के साज हैं, पर काशी के वादकों ने एकल वादन के लिए भी नाम बनाया है।

काशी ने ध्रुपद-धमार-खयाल ही नहीं, ठुमरी, काशी टप्पा, कजरी, दादरा, चैती, पूरबी, भैरवी, होरी, घाटो, झूमर और तराना, कबीरा, सोहर, नहछू, बिरहा, ‌विदेसिया, सावनी और कव्वाली जैसी विधाओं की भी अपनी अलग शैली भी विकसित की है। साथ ही संरक्षित किया है रमायन, कथागायन, कीर्तन, रागमाला, निरवही, लच्छनगीत, बारहमासा, सरगम, चतुरंग, निरगुन, लावनी, खमसा, तिरवट, सादरा, पितमा, फौव्वारा, लाचारी, पुजैया, बधैया, घोड़ी, गारी, चंदनी, बहुपेशा, आल्हा, जैसी विधाओं को। बनारसी हर हाल में आमोद-प्रमोद के अवसर को ढूंढ ही लेता है, सो ये महफिलें रईसों के घर के चौक, दीवानखानों और बाग-बागीचों में लगी ही रहतीं थीं। हर ओर गुलाब की पंखुरियां, इत्र, केसर और गुलाबजल की फुहार, विजया का सुरूर छाया रहता। मंदिरों में श्रृंगार और बुढ़वा मंगल, गुलाब बाड़ी, होली-चैती, सावन का झूला-झूमर, कजरी मेले, कव्वाली दंगल, भांडों के तमाशे, गुलाब बाड़ी, जैसे कार्यक्रम भी ये अवसर देते थे। सबसे मशहूर थे दालमंडी जैसी श्रृंगार हाट में होने वाले मुजरे-बंद और खुले मुजरे।

काशी में संगीत की परंपरा के पनपने के पीछे काशी के राज-दरबारों का बडा ़हाथ है, गिरजा देवी और सिद्धेश्वरी देवी सरीखों ने विदेशों में कार्यक्रम दिए और भारतीय कला केंद्र और म्यूजिक रिसर्च एकैडमी, जैसी संस्थाओं की अगुवाई की। काशी का संगीत जगत ‘संगीत समाज’, ‘संगीत परिषद’, ‘ललित’, ‘अलाउद्दीन म्यूजिक सर्किल’, हनुमान प्रसाद पोद्दार अंध महाविद्यालय और महामृत्युंजन संगीत सम्मेलन, विश्वेश्वर महादेव, धूमावती, दुर्गा मंदिर जैसी संस्थाओं और संगीत उत्सवों का भी ऋणी है।

संगीत का चौरा

संगीत का कोई भी इतिहास काशी के कथकों की चर्चा के बिना पूरा नहीं हो सकता। लखनऊ के बिंदादीन महाराज के भाई कालिका महाराज बनारस के थे। सुखदेव महाराज के परिवार के सितारा देवी और बिरजू महाराज को कौन भूल सकता है! घरानों में अधिकांश संगीत घराने-भले वे गायन या वादन से जुड़े हों-कथकों की ही देन हैं। पं‧ रामसहाय, बड़े रामदास, हनुमान प्रसाद मिश्र, सिद्देश्वरी, सितारा देवी, गिरिजा देवी, गोपीकृष्ण, कंठे महाराज, किशन महाराज, गोदई महाराज, राजन-साजन मिश्र बंधु यहीं विराजते थे।

शासकीय अस्पताल से लेकर नागरी नाटक मंडली के आगे और ईश्वरगंगी के पिछवाड़े तक-घरों के भीतर से फूटते मीठे सुर और घुंघरुओं के बोल राहगीर के कदम बरबस रोक लेते थे। काशी का संगीत अपने अमरत्व के लिए कबीरचौरा का कितना भी शुक्र अदा करे कम हैं, जिसने देश को एक से बढ़कर एक अप्रतिम गायक, वाद्यकार और नर्तक दिए हैं। 300 से ज्यादा संगीतज्ञ परिवारों को समेटे काशी का यह मोहल्ला जितना कबीर के नाम से जाना जाता है, उससे कम संगीत के लिए नहीं।

संगीत के तीन भारत रत्न

उस्ताद बिस्मिल्ला खां, पं. रविशंकर और भूपेन हजा‌रिका के रूप में संगीत के जुड़े तीन ‘भारत रत्न’ काशी ने दिए हैं। एक ‌सितार का सबसे रोशन सितारा, दूसरा शहनाई का जादूगर और तीसरा फिल्मी संगीत का सबसे ‌इज्जतदार नाम। पं. रविशंकर ने तो काशी को अपनी संस्था ‘रिम्पा’ (रविशंकर इंस्ट्यिूट ऑफ म्यूजिक ऐंड परफॉर्मिंग आर्ट्स) का केंद्र ही नहीं बनाया, अपने साथ सबसे मशहूर बीटल गायक जॉर्ज हैरिसन को भी काशी लाए। ‘भारत रत्न’ एम‧ सुब्बुलक्ष्मी की सबसे प्रसिद्ध रचना कहलाती है ‘काशी विश्वनाथ सुप्रभातम’।

काशी आदिकाल से ही गायक, वादकों और संगीतज्ञों की आश्रय स्थली रही है। महाराष्ट्र के पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने यहां की गलियों में रामधुन गाई तो पं. विष्णुनारायण भातखंडे ने संगीत परिषद आयोजित की। गुजरात के पं. ओंकारनाथ ठाकुर कई बड़ी संगीत प्रतिभाओं के सिरजनहार बने। देश के हर हिस्से के लोगों ने काशी को कर्मभूमि बनाकर उसे अपनी प्रतिभा से संपन्न किया। गुजरात से ध्रुवजी, वसंत कृष्ण नागर और रामाजी। महाराष्ट्र से भावेबुवा, वी‧ जी‧ जोग, नारायणदत्त फडके, बालकृष्ण फडके, भैयाजी लांडे, सोमनाथ गुजरकर, सोमनाथ बेहरे, भागवतजी, पाठकजी, माधव कालविंट, डॉ‧ पाटेकर, हिर्लेकर, माधवराव सप्रे, बेलसरे, तांबेजी, दामलेजी और गंगाधर बुवा चांदवरकर। और बंगाल से ज्योतिन भट्टाचार्य, उपेंद्र बाबू, राय चौधरी, भोला भट्टाचार्य, अघोर चक्रवर्ती, हरिनारायण, संतू बाबू, धीरेन चक्रवर्ती, प्राण कृष्ण, राखाल बाबू और सुरेन गांगुली। काशी संतूर वादक जम्मू-कश्मीर के पं‧ शिवकुमार शर्मा की भी शिक्षा भूमि है।

गायन के क्षेत्र में लें, वादन के या नृत्य के-काशी का कोई मुकाबला नहीं है। इन नामों पर भी नजर डालिएः उदयशंकर, बागेश्वरी ,लच्छू महाराज, ज्योतिन भट्टाचार्य, पं. वी. जी. जोग, एन. राजम, पं. रोनू मजुमदार, हेमंत कुमार, राजकुमारी, गोपाल मिश्र, पं. रघुनाथ, डॉ. सोमा घोष, लालमणि मिश्र, अमला आनंद शंकर, तनुश्री शंकर, डॉ.कमला शंकर, विशाल कृष्ण, गजेंद्र सिंह।

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विमल मिश्र

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