लोक संगीत में पर्व-त्योहार
हमारे बहुत से पर्व और त्योहार प्रकृति मां की ऋतुओं के अनुकूल और संगीतमय होने से आनंदमय उत्सवों से जुड़ गए हैं और इनका माध्यम बने हैं लोकगीत।
प्रकृति अपना खजाना चहुंओर उन्मुक्तता से लुटाती है और जोड़ती है नदी व वृक्ष और माटी की गंध से। हमारी पृथ्वी शेषनाग के फन पर विराजी है, इसलिए हमारे पर्वों की शुरुआत भी ‘नागपंचमी’ से ही होती है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ‘नागपंचमी’ का पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में नाग देवता को दूध और धान का लावा अर्पित कर मनाया जाता है। मेले लगते हैं और स्त्रियां लोकगीत गाती हैं, ‘हो मोरा नाग दुलरुआ‧‧‧।’ महाराष्ट्र में भी नारी कंठ से स्वर फूटते हैं, ‘माझा नवलाखी हार कुठे गेला, नाग दादा।’
इन पर्वों से संबंधित कई लोकगीत सावन के झूलों के साथ बरबस ही जुबान पर उतर आते हैं। पूर्णिमा पर भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का पर्व‘रक्षाबंधन’ मनाया जाता है। फिर सुहाग का पर्व ‘तीज’। पति के लिए निर्जल व्रत रखकर स्त्रियां नव वस्त्र और आभूषण पहनकर शिव-पार्वती की पूजा और सुहाग संबंधी चीजों का दान करती हैं। भादो महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान ‘जन्माष्टमी’ पर गाया जाता है, ‘नंद घर बाजे बधइया। जन्में कृष्ण कन्हैया ना॥’ महाराष्ट्र ‘गोविंदा आला’ से श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की प्रसन्नता में सराबोर हो जाता है। फिर महाराष्ट्र के साथ पूरा देश 10 दिन के ‘गणेशोत्सव’ में ‘गणपति बाप्पा मोरया’ के आह्वान से गुंजायमान हो जाता है।
आश्विन मास शुक्ल पक्ष में शरद की रात्रि में ‘गरबा डांडिया’ के पर्व में कृष्ण और गौरी स्वरूपा राधा का पूजन किया जाता है और नृत्य के साथ गूंजते हैं ‘शरत पूनम की रातड़ी चंदा चढ्यो आकास रे’ के बोल। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को सुहाग का व्रत ‘करवा चौथ’ आता है, जिसे टी‧ वी‧ धारावाहिकों और फिल्मों ने बहुत लोकप्रिय बना दिया है। कार्तिक मास धनतेरस, नरक चौदस, लक्ष्मीपूजन और भाईदूज के रूप में ‘दीपावली’ का महापर्व है। फिर सूर्यषष्ठी के रूप में पवित्र छठ व्रत का आगमन होता है। सायंकाल सूर्यास्त के समय महिलाएं सम्मिलित स्वर में आलाप लगाती हैं, ‘केरवा जे फरेला धेवद से। ओटी पर सुग्गा मंडराय‧‧‧‧॥’
अब ऋतुओं का राजा वसंत फाल्गुन की मस्ती में ताल देता हुआ धरती पर आ पहुंचा है। आम्र वृक्षों से गिरते हुए नन्हें-नन्हें पुष्पों का पराग कुंकुमचूर्ण की वर्षा सा प्रतीत होता है। कोकिल के पंचम स्वर से अमराइयां मुखर हो उठती हैं। शीतकाल की जड़ता के बाद प्रकृति फूलों से अपना श्रृंगार कर सभी को अपनी ओर आकृष्ट करती है। इस समय का लोकगीत देखें:
बेला फूले, चमेली फूले। और फूले कंचनवा हो रामा॥
गेंदवा जे फूले माघ रे फगुनवा। चैत मासे फूलेला गुलबवा हो रामा॥
‘होली’ फाल्गुन का त्योहार है। ‘वसंतोत्सव’ या ‘मदनोत्सव’। हिंदू नववर्ष के संवत की शुरुआत। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को समधा स्वरूप उपले आदि एकत्र कर अग्नि प्रज्ज्वलित कर उसमें जौ, गेहूं के बालों आदि की आहुति दी जाती है और इसके बाद ही नवान्न का उपयोग किया जाता है। दूसरे दिन धुलंडी या धूलिवंदन पर गलियों-मोहल्लों में गले में ढोलक लटकाकर जोगिडा ़गाते जाते हैं, ‘होली है भाई होली है। आपस का बरजोरी है। कोई सांवर कोई गोरी है। बुरा न मान होरी है॥’
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डॉ‧ शैलेश श्रीवास्तव
