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जयति जय उज्जयिनी | राजशेखर व्यास | Ujjayini: The Timeless City of Mahakal | Rajshekhar Vyas

जयति जय उज्जयिनी

उज्जयिनी विरल और विशिष्ट है। यह ज्योतिष की जन्मभूमि और स्वयंभू ज्योतिलिंग भूत-भावन भगवान महाकाल की नगरी ही नहीं, काल गणना का केंद्र भी है।

 

जयति जय उज्जयिनी। वैभवशालिनी उज्जयिनी। उत्कर्ष के साथ जय करने वाली नगरी उज्जयिनी। भारत की प्राचीनतम महानगरियों में एक महाकालेश्वर की उज्जयिनी। इतिहास, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, योग, वेद-वेदांग, आयुर्वेद, ज्योतिष, साधु-संत, मन्दिर और मस्जिद, चमत्कार, सांप्रदायिक सद्भाव की विलक्षण नगरी! भारत के हृदय में स्थित है मालवा-मालव प्रदेश! इसी मालवा की गौरवशाली राजधानी उज्जयिनी।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि उज्जयिनी संसार की सबसे प्राचीन नगरी है। यह मानव लोकेश नाम से वर्णित है और मानव सृष्टि का आरंभस्थल इसी अवंतिका नगरी को बतलाया गया है। दिल्ली जब एक गांवडा भी नहीं थी, तब ईसा पूर्व 57 में उज्जयिनी सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी थी, जिनका शासन नेपाल, अरब व ईरान से ले कर अफगा‌निस्तान तक था। मिस्र के तूतन खामन की खोदाई में भी स्वर्णपत्र पर विक्रमादित्य की प्रशंसा में कविता प्राप्त हुई है।

उज्जयिनी ‌विरल और विशिष्ट है। एक तरफ उज्जयिनी काल गणना का केंद्र, ज्योतिष की जन्मभूमि और स्वयंभू ज्योतिलिंग भूत-भावन भगवान महाकाल की नगरी है तो दूसरी और जगद्‌गुरू कृष्ण के गुरू महर्षि सांदीपनि की शिक्षा भूमि है। यहां संवत प्रवर्तक सम्राट विक्रम ने अपना शासन चलाया। शकों और हूणों को परास्त कर पराक्रम की पताका फहराई, तो महाकवि भास, कालिदास, भवभूति और भर्तृहरि ने यहीं कला व साहित्य के अमर ग्रंथों का प्रणयन किया और वैराग्य की धूनि रमाई। शृ्ंगार-नीति और वैराग्य की अलख जगाने वाले तपस्वी, ‘जदरूप’ और योगी पीर मत्स्येन्द्रनाथ की साधना स्थली भी यही नगरी है। चंडप्रद्योत उदयन-वासवदत्ता, चंडाशोक के न्याय और शासन की केंद्र धुरी रही है उज्जयिनी। नवरत्नों से सजी-धजी कैसी होगी उज्जयिनी; जब यह ज्योतिष जगत के सूर्य वराह मिहिर, चिकित्सा के चरक, धन्वंतरि और शंकु घटखर्पर-वररुचि जैसे महारथियों से अलंकृत रहती होगी! वेद, पुराण, उपनिषद्, कथा-सरित्सागर, बाणभट्ट की ‘कादंबरी’, ‘शूद्रक’ के ‘मृच्छकटिकम’ और आयुर्वेद-योग-वैदिक-वांगमय, योग, वेदांत, काव्य व नाटक से लेकर कालिदास के ‘मेघदूत’ तक इस नगरी के गौरवगान से भरे पड़े हैं। पाली, प्राकृत-जैन, बौद्ध और संस्कृत साहित्य के असंख्य ग्रंथों में उसके वैभव का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।

उज्जयिनी का सर्वाधिक विषद विवरण ‘ब्रह्मपुराण’ और  स्कंदपुराण के ‘अवंति-खंड’ में हुआ है। कनकशृ्ंगा, कुशस्थली, अवन्तिका, उज्जयिनी, पद्मावती, कुमुदवती, अमरावती, विशाला, प्रतिकल्पा, भोगवती, हिरण्यवती अनेक नामों से इसे सुशोभित किया गया है। इस नगरी में प्रवेश के लिए प्राचीन काल में ‘चौबीस खम्बा’ मुख्य द्वार था। कहते हैं ‘महाकाल वन’ का परकोटा यही था। यह विद्वानों की नगरी है। राजशेखर ने लिखा है, श्रूयते ही उज्ज्यन्यां काव्यकारणं परीक्षणं’, यानी सुनते हैं कि प्राचीन काल में उज्जयिनी में प्रवेश से पूर्व विद्वानों की भी परीक्षा ली जाती थी।

महाकालेश्वर की यह नगरी सुरम्य क्षिप्रा तट पर बसी है। ‘स्कंद पुराण’ में लिखा है-‘पृथ्वी पर क्षिप्रा के समान कोई नदी नहीं है। इसके तट पर क्षण मात्र खड़े होने से ही मुक्ति मिल जाती है।’ भारत का ‘प्राचीन ग्रीनविच’ उज्जैन लगभग 15.75 लाख आबादी के रूप में बसा है। भारत के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फुट ऊंचाई पर बसा यह नगर अनेक रूपों में अद्भुत है। कहते हैं कण-कण में रचे-बसे शिवलिंग यहां इतने हैं कि आप बोरी भर कर चावल लेकर निकलें और हर जगह चार-चार अक्षत भी छिटकें तो चावल कम पड़ जाएंगे, शिवलिंग नहीं। इनमें 84 महादेव, 64 योगिनी और अनेक देवियां प्रसिद्ध हैं। प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जैन सिद्धपीठ है। इसे चारों तरफ से देवियों की सुरक्षा का कवच पहनाया गया है। नगर की सुरक्षा के लिए प्राचीन परकोटे पर स्थित नगरकोट की महारानी, गढ़ पर स्थित गढ़कालिका व शक्ति की आराधना का स्थल विक्रम एवं कालिदास की आराध्या हरसिद्धि देवी। तंत्र साधना में ‘भैरव’ का विशेष महत्व है। यहां ‘अष्टभैरव’ और 36 सौ भेरू मन्दिर हैं। ‘कालभैरव’-जो मद्यपान करते हैं-तांत्रिकों के सर्वाधिक प्रिय और प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा छोटे भेरू, बड़े भेरू, काल-भेरु, अताल-पताल भेरू‧‧‧ भेरू ही भेरू। चमत्कार कर देने वाली भर्तृहरि की गुफा है तो चिन्तामण गणेश, बड़े गणेश व स्थलमन गणेश सहित छह प्रख्यात विनायक हैं। ‘हनुमान’ का तो मानो इस नगरी पर विशेष प्रेम हैं-छोटे हनुमान, खड़े हनुमान से लेकर लेटे हनुमान और ‘बाल हनुमान’ भी आपको यहां मिल जाएंगे

महाकाल का रोचक वर्णन

धारणा है कि महाकालेश्वरजी स्वयंभू देव हैं। सर्पाकार वेष्टित उनकी विशाल स्वयंभू प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक परम्परा में दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग और पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों मे केवल ‘महाकाल’ को ही प्राप्त हैं। विश्वविख्यात महाकाल मन्दिर दो हैं-एक वृद्ध महाकालेश्वर एक युवा महाकालेश्वर। वृद्ध महाकालेश्वर ही मूल और प्राचीन माने जाते हैं। 18 पुराणों में महाकालेश्वर का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है। ‘महाभारत’ (वनपर्व अ‧12‧ श्लोक) या ‘स्कंदपुराण’, ‘मत्स्यपुराण’, ‘शिवपुराण’, ‘भागवत’, ‘शिव लीलामृत’ आदि धर्म ग्रंथों के साथ ‘कथासरित्सागर’, ‘राजतरंगिणी’, ‘कादंबरी’ व ‘मेघदूत’ आदि काव्यों में महाकाल का बहुत ही रोचक वर्णन मिलता है। महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत यक्ष से महाकाल मन्दिर पर सायंकालीन शोभा का नयन सुख लेने और घनगर्जन द्वारा नभकारों का अनुकरण करने का आग्रह किया है। गुलामवंशीय अल्तमश ने ई‧ सं‧ 1235 में अपने आक्रमण के दौरान जब इस नगरी को लूटा था, तब महाकाल मंदिर को भी नहीं बख्शा था। वह यहां से सम्राट विक्रम की स्वर्ण प्रतिमा भी लूटकर ले गया।

मध्ययुगीन काल में मंदिर के चारों ओर कोट बना हुआ था, भीतर कई राजप्रासाद और भव्य भवन व उपवन थे, जिनके बिखरे ध्वंसावशेष यत्र-तत्र अब भी उस वैभव की स्मृति दिलाते हैं। इसी कारण इस मुहल्ले का नाम अब ‘कोट’ भी कहा जाता है। वर्ष 1734 में राणो जी शिंदे के दीवान रामचंद्र ने इसका जीर्णोद्धार करवाया, तब से यहां पूजन-अर्चन पुनः आरंभ हुआ। सिंधिया, होल्कर, पवार-तीनों राज्यों से मन्दिर की साज-सज्जा की व्यवस्था हुई। तब तक यहां चिता भस्म से भस्म आरती भी होती थी। यह आरती अब भी होती है, मगर गांधीजी के आह्वान पर चिता भस्म से नहीं, चांदी की कलापूर्ण रजत जलाधारी से।

महाकालेश्वर के सभा मंडप में ही राम मंदिर है। इन रामजी के पीछे ‘अवन्तिका देवी’ की प्रतिमा है, जो उज्जयिनी की अधिष्ठात्री देवी हैं। मंदिर के नीचे सभा मंडप से ही लगा ‘कोटितीर्थ’ नामक कुंड है, जिसके आस-पास शंकर जी की सुंदर छत्रियां हैं। मुख्य द्वार ‘शंख द्वार’ भी अब नहीं रहा। आज महाकाल पर शासकीय आधिपत्य है। श्रृंगार और नवनिर्माण के नाम पर नित नए प्रयोग होते रहते हैं।

खगोल एवं भौगोलिक गणनानुसार लंका से सुमेरू पर्वत तक जो देशांतर रेखा गयी है वह महाकाल के ऊपर से ही होकर जाती हैं। वराह मिहिराचार्य के अनुसार 21 मार्च के दिन वर्ष में एक बार सूर्य महाकाल शिखर के ठीक मस्तक पर आ जाता हैं। उज्जयिनी के अक्षांश और सूर्य की परम क्रान्ति-दोनों 24 अक्षांश मानी जाती है। सूर्य की यह स्थिति उज्जयिनी के अलावा दुनिया के किसी भी अक्षांश पर नहीं होती। इसी वजह से विश्व में उज्जयिनी ऐसा स्थान है, जहां काल और समय का निर्धारण अत्यंत सरलता से होता है। इसीलिए विश्व में एक मात्र उज्जयिनी का शिव मन्दिर ही ‘महाकाल’ कहलाता है।

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राजशेखर व्यास

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