वैदेही के विवाह में जन्मी ‘मधुबनी’
मौजूदा डिजिटल युग में ‘मधुबनी’ भी अपडेट हुई है, पर इसने सनातन की परंपरा को अपनाए रखा है।
युगों की साक्षी पौराणिक कला ‘मधुबनी’ न केवल सनातन का दर्पण है, अपितु विश्व पटल पर भारत का परचम लहरा रही है। माता वैदेही के विवाह में मिथिलांचल से उपजी ‘मधुबनी’ लोक-परंपरा का नेतृत्व करते हुए भौगोलिक सीमा लांघ समंदर पार जापान में भी बतौर ‘मिथिला संग्रहालय’ स्थापित हो चुकी है। इसी वर्ष ‘मधुबनी’ के उपासक पासवान दंपती (शिवम और शांति) ने ‘पद्मश्री’ से मिथिला का मान बढाय़ा। हालांकि, चंद दिन पहले ही हमने ‘मधुबनी’ की महान विभूति गोदावरी दत्ता को खो दिया, जिन्होंने न सिर्फ दुनिया भर में इसका प्रचार-प्रसार किया, बल्कि सैकड़ों विद्यार्थियों को इसमें पारंगत किया।
‘मधुबनी’ कलाकृतियों का जन्मकाल रामायण युग से माना गया है। प्रभु श्रीराम के धनुष तोड़ने पर जब राजा जनक ने अयोध्या नरेश दशरथ को सीता-राम विवाह के लिए जनकपुर आने का न्यौता दिया, तब बारातियों के स्वागत के लिए जनकपुर की महिलाओं ने घर की दरो – दीवारें इसी ‘मधुबनी’ कृतियों से सजाईं। तभी से, मिथिलांचल क्षेत्र जैसे दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ हिस्सों में विवाह समारोहों एवं उत्सवों पर यह कलाकृति उकेरने की परंपरा चल पड़ी।
1934 में मिथिलांचल में भयंकर भूकंप आया। ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यू‧़ जी‧ ऑर्चर जब यहां दौरे पर आए, तब उनकी ढही दीवारों पर बने कलाचित्रों पर पड़ी। ऑर्चर ‘मधुबनी’ कृतियों के बारीक हुनर से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इनकी तस्वीरें खींचकर कला-संस्कृति की प्रसिद्ध पत्रिका ‘मार्ग’ में इस चित्रकला पर लेख छापा। इससे मिथिला चित्रकला के रूप में ‘मधुबनी’ विश्व पटल पर छा तो गई, किंतु इस कला के हुनरमंदों को सरकार का साथ मिलने में 30 साल और लगे। 1964 में मिथिला में भयंकर सूखा पडा,़ तब अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड ने क्षेत्रीय कलाकारों को सम-सामयिक प्रशिक्षण देने के लिए मुंबई के कलाकार को यहां भेजा। इससे दीवारों और जमीन तक सीमित ‘मधुबनी’ परिमार्जित हो कैनवास, कागज, कपड़े, बोर्ड आदि पर बनने लगी।
आधुनिकता में लिपटी परंपरा
डिजिटल युग में ‘मधुबनी’ भी अपडेट हुई, पर इसने सनातन की परंपरा को अपनाए रखा। चित्रों की विषयवस्तु में मां दुर्गा, काली, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गौरी-गणेश और विष्णु के दस अवतारों के अलावा सूर्य-चंद्रमा, पशु-पक्षी, वृक्ष, फूल-पत्ती और स्वस्तिक उकेरे जाते हैं। इनमें गहरे लाल, हरे, नीले, नारंगी, पीले आदि चटख रंग करीने से इस्तेमाल होते हैं। मधुबनी दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन। भित्ति चित्र पूजाघर, कोहबर, बाहरी दीवार या ड्राइंग रूम में बनाए जाते हैं, जबकि अरिपन फर्श पर लाइन खींचकर। इस चित्रकला की पांच शैलियां हैं – भरनी, कचनी, तांत्रिक, गोदना और कोहबर। जिनमें ज्यादातर भरनी और कचनी का ही प्रयोग होता है।
जन्म देने से लेकर ‘मधुबनी’ को जीवंत बनाए रखने का श्रेय मिथिला की महिलाओं को जाता है। फेमिनिन आर्ट ‘मधुबनी’ की पहली कलाकार जगदंबा देवी थी, जिन्हें 1970 में ‘पद्मश्री’ से नवाजा गया। उसके बाद सीता देवी व गंगा देवी को सम्मानित किया गया। अब तो पुरुष कलाकार भी ‘मधुबनी’ के उपासक हैं।
‘मधुबनी’ कलाकारों को शुरू में जातिगत भेदभाव झेलना पडा। पहले सिर्फ उच्च कुल की महिलाओं को ही देवी-देवताओं के चित्र उकेरने या धार्मिक कथाओं को भित्तिचित्र में ढालने का अधिकार था, जबकि अन्य मको राजा शैलेश के जीवन वृतांत का चित्रण करने की सहूलियत थी अथवा उनमें गोदना (टैटू) बनाने का प्रचलन था। आज सभी उपासक मिल-जुलकर इस कला को संजोने में जुटे हैं। इस कला में विरासत की परंपरा आज भी है, जिसमें एक पीढ़ी, दूसरी पीढ़ी को बचपन से ही चित्रकला की बारीकियों से पारंगत करा देती है। ‘मधुबनी’ का यही अनोखापन इस कला में प्राण भरता है, जो आगे भी जारी रहेगा।
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सोनी सिंह
