नालासोपारा, जहां भगवान बुद्ध आए थे
पश्चिम रेल का वह दूरस्थ उपनगर नालासोपारा सैकड़ों वर्ष पहले ‘शूर्पारक’ और ‘सोपारा’ नाम से भारत का प्रमुखतम बंदरगाह होता था, जहां से सम्राट अशोक के पुत्र-पुत्री महेंद्र और संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका प्रस्थान किया था। यहां बौद्ध स्तूप के निर्माण के सिलसिले में स्वयं महात्मा गौतम बुद्ध और सम्राट अशोक पधारे थे!
कलंब बीच जाने के रास्ते में एक छोटी सी सड़क अचानक हमें पूर्णानगरी के हमारे गंतव्य पर लाकर खडा कर देती है, जिसके सामने एक तालाब है और जो दिखने में एक बागीचे जैसा लगता है। ‘कोट’ के लंबे-चौड़े पूरे इस परिसर में ‘संरक्षित’ इमारत होने संबंधी एक सूचना फलक को छोड़कर सोपारा बौद्ध स्तूप की जानकारी देने वाला कोई भी नहीं है। नालासोपारा (पश्चिम) स्टेशन से कार या आटोरिक्शा से पूर्णानगरी एक किलोमीटर से भी कम रास्ता है, पर औरों को तो क्या नालासोपारा में बरसों-बरस रहते आ रहे लोग भी उसके इतिहास से अनजान हैं। बुद्ध जयंती पर एक वार्षिक कार्यक्रम को छोड़कर यह स्थान-जिसे स्थानीय लोग ‘बुरुड राजाचे कोट’ के नाम से पुकारते हैं – अक्सर सूना ही पडा ़रहता है।
अमराई के घने झुरमुट में घिरा यह ढांचा स्तूप क्या, मिट्टी का कोई ढूहा लगता है। चारों ओर ईंट-पत्थर और मिट्टी के गोल व चौकोर छोटे-छोटे से भग्न प्राचीन मूर्तिशिल्पों और कलशनुमा निर्माणों से घिरा। इनमें कुछ 11-12 वीं शताब्दी की हैं और कुछ में बुद्ध विराजे हैं। इन्हीं के बीच स्थानीय लोगों द्वारा स्थापित एक नई प्रतिमा दिखती है जो शायद बुद्ध की ही है। स्तूप के बीच में सांची के स्तूप से मिलता ईंट निर्मित एक चैंबर हुआ करता था, 1 अप्रैल, 1882 में पं‧ भगवानदास इंद्रजी को खोदाई के दौरान इसमें पत्थरों से बना एक गोलाकार कोषागार प्राप्त हुआ था, जिसमें एक के भीतर एक विभिन्न धातुओं से निर्मित कई मंजूषाएं मिलीं। इसमें स्वर्ण फलक पर बुद्ध की उपदेश मुद्रा में एक छोटा चित्र व मैत्रेय बुद्ध की आठ कांस्य निर्मित चित्र मिले थे जिनका काल 8वीं-9वीं शताब्दी आंका गया है। इन मंजुषाओं में स्मृतिचिह्नों के अलावा 300 स्वर्ण पुष्प, कुछ रत्न, चंदन के शिल्प, कलात्मक वस्तुएं व पत्थर के मनके, पांच बर्तन और एक टूटा-फूटा भिक्षापात्र भी है, जिसे बुद्ध का माना जाता है। ढूहे में चांदी के कुछ सिक्के भी प्राप्त हुए जिनमें एक पर गौतमीपुत्र शतकर्णी का चित्र उत्कीर्ण था। इनमें एक सिक्का दूसरी सदी के सातवाहन राजा का है। इनमें कुछ मुंबई की एशियाटिक सोसाइटी में आज भी देखने को मिल जाएंगे। 1956 में खुदाई में मिला सम्राट अशोक का यह स्तूप 2000वर्ष से अधिक प्राचीन है। माना जाता है कि अशोक इस स्तूप का निर्माण देखने खुद यहां आये थे।
खोदाई में मिला अमूल्य खजाना
सुप्पारक बौद्ध स्तूप के इतिहास पर नजर मारते समय हमें 2600 वर्ष पहले के काल में लौटना होगा। सोपारा में पूर्णा नामका एक प्रसिद्ध व्यापारी हुआ करता था। कारोबार के सिलसिले में एक बार उनका श्रावस्ती (गोरखपुर-उत्तर प्रदेश) जाना हुआ जहां उन्हें गौतम बुद्ध के दर्शन हुए। बुद्ध के उपदेशों से उनमें वैराग्य पैदा हुआ और वे भिक्षु बन गए। श्रावस्ती के जैतवन में कुछ वर्ष गुजारने के बाद पूर्ण बुद्ध के भिक्षापात्र के साथ मूलस्थान लौटे और चंदन के काष्ठ से उन्होंने आठ द्वारों वाला एक सुंदर विहार बनवाया, जिसके उद्धाटन के लिए गौतम बुद्ध को आमंत्रित किया। बुद्ध अपने पांच सौ शिष्यों के साथ यहां पधारे और सात दिन ठहरे। यहां 75 हजार लोगों ने उनसे बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के दो सौ वर्ष बाद सम्राट अशोक ने यहां कुछ धर्मरक्षिता भेजे, जिन्होंने स्तूप का पुनर्निर्माण कराया। सोपारा बंदरगाह उन दिनों भारत के सबसे विकसित बंदरगाहों में अपनी गणना करवाता था। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बोधि वृक्ष की शाखा के साथ सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा श्रीलंका सोपारा से ही गए थे। कालांतर में यह स्तूप भूगर्भ में लुप्त होकर लोगों की नजरों से ओझल हो गया। खोदाई से स्तूप को आम नजरों के सामने हाजिर करने का श्रेय स्थानीय कलेक्टर के साथ 1956 में एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालयाध्यक्ष एन‧ ए‧ गोरे को जाता है। सम्राट अशोक के देशभर में 16 अभिलेख पाए जाते हैं। इनमें 8वां अभिलेख पंडित भगवानदास ने 1882 में भाटेला झील की साफ-सफाई के दौरान प्राप्त किया। 9वां अभिलेख एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालयाध्यक्ष एन‧ ए‧ गोरे ने 1956में भुईगांव से खोज निकाला। डॉ‧ बाबासाहब आंबेडकर कई बार स्तूप के दर्शन के लिए आए। 2004 में विशाल धम्म परिषद यहीं आयोजित हुई थी।
शूर्पारक से नालासोपारा
बाइबिल में भारत की समृद्धि का जिक्र करते समय नालासोपारा का उल्लेख इस तरह आता है, ‘टार्शिश के जहाज राजा सोलोमन के लिए ओफीर (सोपारा का ही नाम) से सोना, चांदी, हाथीदांत, बंदर, मोर और चंदन और जवाहरात लाते थे।’ नालासोपारा के प्राचीन वैभव के बारे में जानकर सचमुच, आंखें फटी रह जाती हैं। शूर्पारक (इसका प्राचीन नाम) भारत के पश्चिमी तट का विशालतम बंदरगाह हुआ करता था 2300 वर्ष पहले देश के दूसरे प्रांतों के साथ चीन, जापान, श्रीलंका, अरब, बेबीलोन, यूनान, रोम, मेसापोटामिया, ईरान, मिस्र, पूर्वी अफ्रीका के साथ जिसके फलते-फूलते कारोबार और धान, पान, कपास व ईख के कोठारों और मंदिरों, झीलों,जलाशयों व अट्टालिकाओं वाली आन-बान-शान का बखान प्लैटोमी, अल इदरीसी, माचूडी और अल बरूनी जैसे रोमन, अरबी और दूसरे विदेशी सैलानियों ने यात्रा वृत्तांतों में मुग्ध भाव से किया है। बताते हैं गोकर्ण से आने के बाद प्रभास जाते समय पांडवों ने यहां विश्राम किया था। यह भगवान परशुराम, तीर्थंकर ऋषभदेवजी और बुद्ध के एक अवतार की धरती है। जैनों के एक संप्रदाय का नाम यहां के नाम पर है और यह जैनों के 84 तीर्थस्थानों में भी शुमार पाता है। ‘शूर्पारक’ की चर्चा महाभारत, जातक कथाओं, बौद्ध, ब्रह्म व जैन साहित्य के साथ बाइबिल में भी आती है। भारत में रेलवे के शैशव काल में दाईसर, बसीन, विरौर नामक स्टेशनों के साथ जिस ‘नीला’ नामका जिक्र मिलता है वह दरअसल, नालासोपारा ही है। कालांतर में इसने अनेक नाम धरे हैं, मसलन ‘सुप्पारका’, ‘सुपारका’, ‘सोपारा’, आदि।
तुंगा पर्वतमाला नालासोपारा का प्रहरी है, जो पिछले चार सौ वर्षों में मुस्लिम और पुर्तगाली आक्रांताओं के पांवों तले कितने ही बार रौंदे जाकर अपमानित हुआ है। यह वही तुंगा पर्वत है पुराणों में जिसका जिक्र है और जिसकी तलहटी में लोग शूर्पारक तीर्थ की यात्रा की पूर्णाहूति किया करते थे। ईसा पूर्व 15वीं सदी से 1300 ईस्वी तक नालासोपारा अपरांत (उत्तर कोंकण) की राजधानी रहा। नालासोपारा प्राचीन भारत में जहाज निर्माण का प्रमुख केंद्र होने के साथ अशोक के पश्चिमी प्रांत का मुख्यालय और बौद्ध ज्ञान-विज्ञान का केंद्र रहा। अशोक की लाट व स्तूपों पर इसका अस्तित्व ईसा पूर्व 225 साल पहले से मिलता है। जलमार्ग के जरिए उन दिनों सोपारा का वैतरणा और उल्हास नदियों के जरिए ठाणे और घारापुरी तक कारोबारी संपर्क जारी था। सोपारा पहली सदी से ही व्यापार-उद्योग का केंद्र रहा है। यहां के इतिहास में गजानन और गजसेन नामक भाई बहुत प्रसिद्ध हैं।
आज नालासोपारा हर वर्ग और समुदाय की कास्मोपोलिटन बस्ती है। कलंब व माजोडी बीचों, वैतरणा, तुलसी व निर्मला झीलों से निकटता, आगाशी जैसे मनोरम गांव, सिद्धेश्वरी देवी मंदिर और शंकराचार्य मंदिरों (निर्मल गांव -जहां से कार्तिक मास में 6 दिनों की यात्रा शुरू होती है) के कारण यह स्टेशन देश के पर्यटन के नक्शे में भी स्थान पा गया है। कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के पर्यटन विभाग ने इसी स्तूप से से महाराष्ट्र के आध्यात्मिक सर्किट की शुरुआत की है, पर, ‘शूर्पारक’ का वैभवपूर्ण अतीत उसके संघर्षपूर्ण वर्तमान से कहीं भी मेल नहीं खाता।
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विमल मिश्र
