रिश्ते हों सदा के लिए
रिश्ता वह चाबी है, जो जीवन में खुशियों का दरवाजा खोलती है। इसलिए जरूरी है कि रिश्तों को संभाल कर रखा जाए। रिश्तों को भावनाओं की खाद, अपनेपन की धूप, स्नेह के पानी और त्याग की छांव तले सहजें, तभी जीवन में खुशियां आएंगी।
जैसे जीने के लिए हवा-पानी और खाने की जरूरत होती है, ऐसे ही अपने परिवेश में खुश रहने के लिए रिश्ते बहुत जरूरी हैं। उषा प्रियंवदा की कहानी ‘जिंदगी और गुलाब’ के फूल भौतिकवादी युग में बदलते रिश्तों को बहुत ही अच्छी तरह प्रस्तुत करती है। जब तक भाई कमा रहा होता है, सारी सुविधाएं उसके लिए होती हैं, लेकिन उसकी नौकरी छूटने के बाद उसकी मंगेतर की सगाई भी कहीं और कर दी जाती है। बहन वृंदा कमाने लगती है। भाई के कमरे के सारे सामान धीरे-धीरे बहन के कमरे में जाने लगते हैं। उसकी दशा घर में काम करने वाले एक नौकर की सी हो जाती है। रिश्तों में इस तरह के बदलाव जीवन में बहुत निराशा पैदा करते हैं, तो दूसरी ओर ऐसे रिश्ते भी होते हैं जो जीवन में खुशियां लाते हैं।
रिश्ता वह चाबी है, जो जीवन में खुशियों का दरवाजा खोलती है। इसलिए जरूरी है कि रिश्तों को संभाल कर रखा जाए। कुछ रिश्ते जीवन में खुशहाली भर देते हैं तो कुछ रिश्ते आंखों से गिरकर खुदकुशी कर लेते हैं। रिश्ते बेवक्त ना मरें, इसके लिए आवश्यक है इन्हें संजोने में हम खुद को खर्च करना सीख जाएं। पैसे से बहुत कुछ खरीदा जा सकता है, लेकिन रिश्ते खरीदे नहीं जाते। अपनेपन की भावना, सेवा और समर्पण की पूंजी से ही रिश्ते बनते हैं, निभते हैं और जीवन में स्नेह की नमी बनाए रखते हैं। आज के वक्त में फेसबुकी रिश्ते तो बहुत बनते हैं, लेकिन जो सचमुच के रिश्ते हैं उनसे हम छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए तो कभी समय की कमी और पैसों के लिए दूर होते चले जाते हैं। जो परिवार रिश्तों को खूबसूरती से सहजते हैं, वहां खुशहाली आती है। परिवार को तो रिश्ते जोड़ते ही हैं, लेकिन गली मोहल्ले और समाज के बीच भी ये गारा बनते हैं। गांव में पहले चौपाल में जाकर लोग बैठते थे, रिश्ते बनाते थे और उन्हें निभाते थे। अगर किसी की बेटी की शादी होती थी तो पूरा गांव इस तरह लग जाता था जैसे उनकी अपनी बेटी की शादी हो रही हो। पर आज तो अपने बहुत करीबी लोगों के ऐसे प्रसंगों पर भी जाने से कई बार लोग बचने लगते हैं। पहले त्योहारों के बहाने पहले रिश्तों को सींचा जाता था। उपहार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था, एक-दूसरे से मिलना, उन्हें मान-सम्मान और स्नेह देना। जबकि आज त्योहारों में रिश्तों पर व्यापार हावी होने लगा है।
जीवन की बुनियाद हैं रिश्ते
रिश्तों पर कहानियां लिखी जाती हैं, फिल्में बनती हैं, गाने गाए जाते हैं, किताबें लिखी जाती हैं, क्योंकि रिश्ते ही जीवन की बुनियाद हैं। बिना रिश्तों के हर शख्स अकेला रह जाता है। अकेलापन झेला ही नहीं जाता, बहुत सी बीमारियां भी लाता है। विवाह केवल दो लोगों के बीच रिश्ता नहीं बनाता, बल्कि दो परिवारों के बीच बहुत से रिश्ते बनते हैं। पति-पत्नी का रिश्ता बनते ही माता-पिता, भाई-भाभी, चाचा-चाची, दादा-दादी, सास-ससुर, नाना-नानी, ताई, बुआ फूफा-न जाने कितने रिश्ते सांस लेने लगते हैं। विदेश में ताई, बुआ, चाची सबके लिए एक शब्द होता है आंटी। चाचा, मामा, फूफा सबके लिए एक शब्द होता है अंकल, जिसमें वह मिठास है ही नहीं, जो हमारे यहां चाचा-चाची बुआ-फूफा-इन सब में है।
‘रामचरित मानस’ रिश्तों का उत्कृष्ट उदाहरण है। संपत्ति के लिए भाई-भाई का दुश्मन बन जाता है, पर तुलसीदासजी ने यह बताया कि त्याग से रिश्तों को कैसे कटु होने से बचाया जाए। मंथरा की बातों में आकर कैकेई राम को वनवास और भरत के लिए राज गद्दी तो मांग लेती हैं, किंतु बाद में इसी बात का उन्हें बहुत ही पछतावा होता है। राम तब उनके मन के क्षोभ को यह कहकर दूर करते हैं कि ‘धन्य है वह माई, जिसने जना भरत सा भाई।’ भरत ने भी 14 वर्षों तक राम की खडाऊ़ं को सिंहासन पर रखा।
हमें याद है, जब हम छोटे थे, कटनी मध्य प्रदेश में रहते थे। नानी के घर मुंबई आने के लिए छुट्टियों का इंतजार करते थे। अब सारी सुविधाएं होकर भी बच्चे कई बार रिश्तेदारों के यहां आना जाना पसंद नहीं करते। अतः जरूरी है कि कहानी सुनाते हुए माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों को बचपन से ही स्नेह, अपनेपन और रिश्तों के महत्व के बारे में बताएं। टेलीविजन, फिल्मों, धारावाहिक इन सबके माध्यम से भी रिश्तों के बारे में बहुत कुछ बताया जाता रहा है। एक फिल्म में माता-पिता को दादा-दादी के साथ खराब व्यवहार करते देखकर बच्चा वैसा ही खेल खेलता है। माता-पिता जब पूछते हैं यह क्या कर रहे हो तो वह कहता है जब आप लोग बूढ़े होंगे, आप लोगों के साथ भी तो मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।
दूरदर्शन पर राजश्री प्रोडक्शन ञ्च ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में और ‘हम लोग’, ‘बुनियाद’, ‘महाभारत’ आदि धारावाहिक देखने सब बच्चे साथ में बैठते थे। ये सभी फिल्में और धारावाहिक रिश्तों की नींव पर ही बने थे। ‘हम लोग’ का मध्य वर्गीय परिवार दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन, भाभी, गांव-मोहल्ले के और दूसरे रिश्ते देखकर दर्शकों को लगता था कि यह तो हमारे ही आस-पास की ही जिंदगी है। इसी तरह लोकगीत, लोक-कथाओं में भी रिश्तों पर बहुत कुछ गाया और लिखा गया है। कुछ गाने, जैसे ‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल’, ‘मेरी दुनिया है मां तेरे आंचल में’, ‘मैंने मां को देखा है मां का प्यार नहीं देखा’,जब भी सुनते हैं आंखों में आंसू भर आते हैं।
बदलने लगे हैं रिश्तों के अर्थ
विज्ञापनों में बाजारवाद ने रिश्तों के अर्थ पूरी तरह बदल दिए। भाई और बहन के बीच भी उपहार का रिश्ता रह गया है। पति-पत्नी के बीच भी हीरे के बिना बात नहीं बनती। लेकिन, कुछ विज्ञापन चाहे बाजार वाद के कारण ही रिश्तों को बहुत सुंदर ढंग से चित्रित करते हैं।
‘महाभारत’ हो या ‘रामचरितमानस’ – रिश्तों की परिभाषाओं को वे अपने-अपने तई गढ़ते हैं। ‘महाभारत’ शिक्षा देता है कि घमंड, लालच और बेईमानी रिश्तों को तहस-नहस कर देते हैं। जब ये बुराइयां आ जाती है तो पूरे के पूरे खानदान खत्म हो जाते हैं। बेशक, रिश्तों को संभाला जाना चाहिए, लेकिन यदि रिश्ते बेमानी हो जाए तो उन्हें नासूर की तरह ढोना भी ठीक नहीं। कृष्ण ने ‘गीता’ में अर्जुन को यही ज्ञान दिया। रिश्तेदार यदि अत्याचारी बन जाए तो अत्याचार नहीं सहना चाहिए। अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहिए। ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास पति धर्म, पत्नी धर्म, पुत्र धर्म, भ्राता धर्म सबको अलग तरीके से परिभाषित करते हैं। महलों में पली सीता पति के साथ वन को चल देती हैं तो उर्मिला पति का विक्षोभ सहते हुए उनके कर्तव्य में आड़े नहीं आती हैं।
कुछ कहानियों में हम खून से इतर रिश्तों को भी अनूठा त्याग करते देखे पढ़ते हैं और उन्हें आदर्श मानते हैं। पन्ना धाय की कहानी ऐसी ऐतिहासिक कहानी है। आज ऐसे अनकंडीशनल लव वाले रिश्ते कम मिलते हैं। दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का रिश्ता होने लगा है। कई बार रिश्ते मुंह चिढात़े से लगने लगते हैं। कोरोना ने परिवारों में रिश्ते के महत्व को एक नई जान भी दी थी तो कई रिश्तों की कलई भी खोली थी। रिश्तों में ‘गिव एंड टेक’ की भावना हो। रिश्तों को भावनाओं की खाद, अपनेपन की धूप, स्नेह के पानी और त्याग की छांव तले सहजें, तभी जीवन में खुशियां आएंगी और हम कह पाएंगे ‘रिश्ते हैं सदा के लिए।’
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डॉ. अलका अग्रवाल सिग्तिया
