सिनेमाई किस्सों में हिंदी सिनेमा
फिल्में कहानियों पर बनती हैं, पर खुद इन फिल्मों के पीछे भी कितनी कहानियां छिपी रहती हैं। ऐसे ही कुछ दिलचस्प किस्से।
हिंदुस्थान के राष्ट्रीय आंदोलन में जब पूरा देश गांधी को सुन रहा था उस वक्त यहां के सिनेमा थिएटरों में लोग बड़ी संख्या में बोलती फिल्मों का आनन्द भी उठा रहे थे। उस वक्त राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘हिन्दुस्तान में अगर कोई बदलाव ला सकता है वे सिर्फ दो हैं-पहला महात्मा गांधी और दूसरा सिनेमा।
1936 में पूना (पुणे) के आर्यन थिएटर में ‘तुकाराम’ रिलीज होती है। फिल्म को देखने के लिए गांव-खेड़े से लोग बैलगाड़ी में बैठकर पूना पहुंचते हैं। टिकट लेने के बाद अपने जूते और चप्पल हॉल के बाहर उतार देते हैं, क्योंकि परदे पर वे महात्मा संत तुकाराम के दर्शन करनेवाले हैं। तुकाराम के परदे पर आते ही वे सिक्के उछालते हुए जयकारा लगाने लगते हैं। सिनेमा का यह जादू मनोरंजन के बाकी विधाओं को अचानक से पीछे छोड़ देता है।
स्टेशन पर बनी धुन
खेल तमाशा और कथा देखनेवाले दर्शक फिल्मों से अपने नायक चुनने लगते हैं। फिल्मों के किरदारों से आइडेंटिफाई करने लगते हैं। दर्शकों के अपार प्यार का नतीजा यह होता है कि फिल्मों के हीरो और नायक का कद फिल्मों से भी बडा होने लगता है। 1943 में बॉम्बे टॉकीज की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘किस्मत’ दो लाख रुपये में बनती है। इसके हीरो अशोक कुमार की फीस 6000 रुपये होती है, लेकिन फिल्म की कामयाबी के बाद जब नरगिस की मां जद्दनबाई अपनी फिल्म में कास्टिंग के लिए अशोक कुमार से मिलती है तो वे अपनी फीस बढाक़र एक लाख कर देते हैं। यही वह समय है जब फिल्म स्टूडियो का विघटन शुरू होता है और सिनेमा की दुनिया में सुपर स्टार पैदा होना शुरू हो जाते हैं।
संगीतकार गुलाम हैदर एक नए सिंगर को लेकर फिल्मिस्तान पहुंचते हैं, जहां वे एक फिल्म में म्यूजिक दे रहे हैं, लेकिन निर्माता शशधर मुखर्जी को गाने के सिंगर की आवाज पसंद नहीं आती। गुलाम हैदर सिंगर को लेकर गोरेगांव स्टेशन आते हैं। दोनों ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं। अचानक हैदर साब सिगरेट के डिब्बे पर बजाकर एक धुन बनाते हैं और उस सिंगर को गुनगुनाने के लिए कहते हैं। उस धुन पर सिंगर की आवाज जादू पैदा करती है। तभी ट्रेन आ जाती है। हैदर साब सिंगर को लेकर मालाड आकर बॉम्बे टॉकीज पहुंचते हैं। वहां उसी धुन पर गीत लिखवाया जाता है और रात तक रिकॉर्डिंग पूरी होती है। उस सिंगर का नाम होता है लता मंगेशकर और फिल्म ‘मजबूर’ का वह सुपरहिट गाना होता है ‘दिल मेरा तोडा,मुझे कहीं का न छोडा तेरे प्यार में।’
देवानन्द फिल्म ‘जिद्दी’ की शूटिंग पूरी करने के बाद एक सेकेंड हैंड कार खरीदते हैं। कार लेकर खंडाला निकल जाते हैं। अगले दिन ड्राइव करते हुए बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो पहुंचते हैं। दोस्तों को सरप्राइज देने के लिए। पर, स्टूडियो में सन्नाटा पसरा है। हॉर्न बजाते हैं। केयरटेकर बाहर आता है। देवानन्द पूछते हैं, ‘स्टूडियो बंद क्यों है?’ वह कहता है, ‘आपको मालूम नहीं, दिल्ली में किसी ने महात्मा गांधी को गोली मार दी।’ देवानन्द अब सीधे गांधीजी की शोकसभा के लिए रवाना हो जाते हैं।
रिजेक्ट से हिट बनी ‘नया दौर’
दादर के श्री साउंड स्टूडियो में बी‧ आर‧ चोपडा ़और यश चोपडा ़लेखक अख्तर मिर्जा का इंतजार कर रहे हैं। मिर्जा काफी देर बाद पहुंचते हैं। चोपडा ़के पूछने पर वे बताते हैं, ‘राजकपूर से 10 मिनट की मीटिंग थी, लेकिन वे मेरी स्क्रिप्ट डेढ़ घंटे तक सुनते रह गए।’ चोपडा ़ने कहा, ‘बधाई हो, राज जी के साथ फिल्म करने के लिए।’ वे कहते हैं, ‘जी नहीं। डेढ़ घंटे सुनने के बाद उन्होंने स्क्रिप्ट रिजेक्ट कर दी।’ चोपडा साब ने यश जी से कहा कि इनको 5000 रुपये का साइनिंग अमाउंट दो इस रिजेक्टेड स्क्रिप्ट के लिए।’ मिर्जा के हैरानी जताने पर बी‧ आर‧ कहते हैं जिस स्क्रिप्ट को राजकपूर डेढ़ घंटे तक बैठ कर सुनते रहे वह कोई मामूली स्क्रिप्ट हो ही नहीं सकती।’ महबूब खान को जैसे ही पता चलता है कि चोपडा ़अख्तर मिर्जा की स्क्रिप्ट पर फिल्म बना रहे हैं तो वे उन्हें यह कहकर मना करने को कहते हैं कि इससे तो डॉक्यूमेंट्री ही बन सकती है, फीचर फिल्म नहीं। पर, उसी स्क्रिप्ट पर बी‧ आर‧चोपडा सुपरहिट फिल्म ‘नया दौर’ बनाते हैं।
वरना ‘मदर इंडिया’ में होते दिलीप कुमार
महबूब खान उन दिनों ‘मदर इंडिया’ बनाने की तैयारी में है। दिलीप कुमार इसमें डबल रोल करने वाले हैं। नरगिस के पति सामू और उसके बेटे बिरजू का रोल। दिलीप कुमार बिरजू के रोल में कम उम्र दिखने के वास्ते विग बनवाने लंदन जाते हैं। महंगा विग बनवा कर मुंबई लौटते हैं। नया विग लगाकर जब वे स्टूडियो में महबूब से मिलते हैं तो महबूब खान कहते हैं, ‘यूसुफ, मैंने कई लोगों से बातें की। सबका कहना है कि यूसुफ को लोग नरगिस के बेटे की भूमिका में नहीं देखना चाहेंगे। मेरी कम्पनी बहुत घाटे में चल रही है। मैं रिस्क नहीं ले सकता।’ दिलीप कुमार नाराजगी और गुस्सा प्रकट नहीं करते। बस, महबूब को फिल्म के लिए शुभकामना देकर लौट जाते हैं।
इसी दौरान दिलीप कुमार के छोटे भाई नासिर खान पाकिस्तान से मुंबई लौटते हैं। वे दिलीप कुमार से अपनी फिल्म बनाने की गुजारिश करते हैं, जिसमें नासिर खान एक्टिंग के साथ प्रोडक्शन की पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं। ‘मदर इंडिया’ से निकाले जाने के बाद दिलीप कुमार के स्वाभिमान को इतना ठेस पहुंची है कि वे ‘मदर इंडिया’ के टक्कर की एक बड़ी फिल्म बनाने का फैसला करते हैं। उन्होंने बचपन में हॉलीवुड एक्टर वेलेस बेरी की एक फिल्म देखी थी जिसमें कानून तोड़ने पर बाप अपने ही बेटे को गोली मार देता है। यह आइडिया दिलीप कुमार के जेहन में कहीं न कहीं रह गया था। वे अपनी कहानी लिखने के दौरान बाप-बेटे की जगह दो भाइयों की कहानी लिखते हैं जिसमें छोटा भाई कानून तोड़ने के लिए सहोदर बड़े भाई को गोली मार देता है। ‘गंगा जमुना’ बनने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है।
गर्दिश में है आसमान का तारा
नेहरू युग शुरू हो चुका है। निर्माणाधीन आर‧ के‧ स्टूडियो में राजकपूर और शैलेंद्र बैठे हुए हैं। तभी के‧ ए‧ अब्बास आते हैं। एक फिल्म की स्क्रिप्ट सुनाते हैं। दो घंटे के नैरेशन के बाद राजकपूर शैलेंद्र से पूछते हैं, ‘स्क्रिप्ट क्या कह रही है कविराज? कुछ समझ में आया?’ शैलेंद्र कहते हैं, ‘अब्बास साब की कहानी कहती है कि गर्दिश में है आसमान का तारा है, आवारा है।’ के‧ ए‧ अब्बास झट से शैलेंद्र को गले लगा लेते हैं और कहते हैं मेरी पूरी स्क्रिप्ट को आपने सिर्फ दो पंक्तियों में व्यक्त कर दिया। फिल्म ‘आवारा’ नेहरू काल में देश की वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त करती है।
‘बंदिनी’ के आखिरी दृश्य का फिल्मांकन झारखंड के साहिबगंज गंगाघाट पर हो रहा है। नूतन ट्रेन का इंतजार कर रही है और अशोक कुमार स्टीमर का। बैकग्राउंड में ‘ओह रे मांझी’ गीत चल रहा है। साउंड रिकॉर्डिस्ट डी‧ बिलिमोरिया द्वारा इस्तेमाल स्टीमर के ध्वनि से बिमल दा ने नूतन के मनोभाव, बेचैनी और तड़प को बेहतरीन ढंग से चित्रित किया है। जब गाने की यह लाइन आती है ‘ओह रे मांझी, मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूं साजन की’ नूतन ट्रेन से स्टीमर की तरफ भागती हैं। कल्याणी एक सफल डॉक्टर का साथ छोड़कर पुराने और छूत की बीमारी से ग्रसित अपने प्रेमी विकास (अशोक कुमार) के पास लौट जाती है । विमल दा की कल्याणी इस जगह पर प्रेम के सर्वोच्च शिखर को छू लेती है। नेहरू युग के आखिरी साल में ‘बंदिनी’ रिलीज होती है। इसके एक साल बाद ही पं नेहरू की मृत्यु हो जाती है। नेहरू युग के अंत के साथ ही हिन्दी सिनेमा से त्याग, बलिदान और प्रेम का अवसान होना शुरू हो जाता है।
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धर्मेंद्र नाथ ओझा