सहज बने रहने में क्या है हर्ज…

वर्धा से मुंबई की वह रेल यात्रा हमेशा याद रहेगी। अपनी बर्थ पर अकेली मैं और अगल बगल ऊपर नीचे की बर्थ पर तभी-तभी डिब्बे में घुसा एक मध्यवित्तीय महाराष्ट्रीयन परिवार। ठीक-ठाक सलवार, कुर्त्ते, चुन्नी वाली युवती मां, पिता, नौ दस वर्ष का बेटा और चार-छह की नन्हीं बेटी।

कुछ बहुत आकर्षक या अनूठा जैसा बिलकुल नहीं कि देखते ही आंखें ठहर जायें। सबने एक दूसरे की मदद से सामान लगाए, अपनी-अपनी सीटें सुरक्षित की और मां के थमाये स्नैक्स, वैफर्स के पैकेट्स लेकर बच्चे बैठ लिए। इस बीच मां, पिता और बच्चों की आपसी चुहल और बातचीत चलती रही, लेकिन सब कुछ मराठी में।

लगभग आधे घंटे तक बिना इंग्लिश के हिंदी में चलता उनका वार्तालाप इन दिनों लगातार मिलावटी भाषा सुनने के अभ्यस्त मेरे कानों में रह-रहकर अटक सा जाता। थोडा औत्सुक्य और प्रशंसाभाव भी उमंगा उनके मातृभाषा प्रेम पर। अपने अधैर्य में प्रशंसा की मिश्री घोलती मैं युवती मां से पूछ बैठी – ‘आपके बच्चे मराठी मीडियम से पढ़ते हैं?‧‧‧ बहुत अच्छी बात-’

वह मृदता में मुस्कराई – जी नहीं इंगलिश मीडियम से –

‘अरे?’ मैं चौंकी, ‘लेकिन ये तो इतनी देर से एक शब्द भी इंग्लिश का नहीं बोले।’

– ‘जी हम सब आपस में हमेशा मराठी ही बोलते हैं। स्कूल में बेशक इंगलिश मीडियम है‧‧‧‧ चूंकि बातचीत के विषय स्कूल और भाषा थी, इसलिए बेटा भी सोत्साह हमारी बातचीत में शामिल था और मां की तरह ही हिंदी में बोल रहा था।

मैंने दुबारा पूछा –

– ‘लेकिन आप लोगों की हिंदी इतनी अच्छी –

– वो कोई बड़ी बात नहीं – हिंदी तो हम सभी की भाषा है जरा कोशिश करो तो सीखनी भी कहां मुश्किल और फिर हिंदी मराठी के बीच तो कितनी समानताएं हैं‧‧‧

अच्छा, दोनों बच्चों की पढाई़, होमवर्क आप दोनों ही देख लेते हैं या फिर कोचिंग वगैरह –

– कोचिंग के पक्ष में तो मैं बिलकुल नहीं‧‧‧ लेकिन अच्छा है कि इनके स्कूल में भी कोचिंग की मनाही है।‧‧‧‧ स्कूल का नियम है कि बच्चे को जो भी समझ में न आये, वह बाद के घंटों में या फिर अपनी टीचर के किसी खाली घंटे में जाकर दुबारा समझ सकता है।

– ‘और आंटी अगर हम खूब ध्यान लगाकर सुन लें न, तो हमें ट्यूशन की जरूरत कहां होती है!’

उनका बेटा बोल रहा था।

– बाकी के लिए मैं हूं ही‧‧‧ और इनके पापा भी‧‧‧‧मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी- ‘तो आप वर्किंग नहीं है?’

वह खिलखिलाई – ‘वर्किंग तो मैं फुलटाइम हूं लेकिन घर और बच्चों के कामों में -’

‘अरे?’ यह मेरी तीसरी ‘अरे थी’ लेकिन इन दिनों तो हर लड़की, स्त्री के लिए बाहर जॉब करना उसकी पहली जरूरत है। आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी होने की दृष्टि से, स्वयं उसके आत्मसंतोष और शिक्षा की उपयोगिता के लिए भी –

‘जी’ – वह पूरी तरह निरहंकारी भाव से बोली – ‘अपना-अपना ख्याल है‧‧‧ परिवार में आर्थिक सहयोग की दृष्टि से बाहर जॉब करना स्त्री के लिए सचमुच एक जरूरत हो सकती है लेकिन हमारी बात जरा अलग है। मेरा कुटुंब बड़ा है। घर में मेरे और मेरे पति के भाई बहनों और सगे संबधियों का आना जाना लगा रहता है। मैंने महसूस किया कि मेरे घर में रहने से घर ज्यादा सुचारू तरीके से चलता है। समूचा वातावरण सुख सौहार्द्र से भरा पूरा रहता है। मेरी देखा-देखी बच्चे भी उत्साहपूर्वक दौड़कर मेहमानों को नाश्ते की प्लेटें, पानी के ग्लास पहुंचाते हैं।

मेहमानों के आने पर घर के घर में हंसी ठहाके और कहां-कहां की बातें होती रहती हैं तो बच्चों का टीवी सीरियलों से ज्यादा मजेदार मनोरंजन हो जाता है।

मैं मुस्कुराई- ‘लेकिन आर्थिक पक्ष?

हम दोनों ने आपस में विचार किया कि मेरे घर में रहने से अगर पति, बच्चों, परिवार और स्वयं ‘मुझे भी’ अच्छा लगता है तो उसके एवज में यदि हमें थोड़ी कम खर्चीली ‘लाइफ-स्टाइल’ बितानी पड़े तो हम खुशी-खुशी स्वीकार लेंगे। मैंने बच्चों से भी बकायदे इस बारे में बात की और उनकी राय मांगी। उन्होंने भी सहर्ष यही विकल्प स्वीकारा।

यह जरूर है कि हम सब महंगे ब्रांडेड कपड़े, जूते और आसमान छूती कीमतों वाले प्रसाधन नहीं इस्तेमाल कर पाएंगे। सप्ताहांत के दिनों का घूमना फिरना कम होगा और आये दिन होटलों में खाना-पीना भी नहीं।

बात इतनी आसान नहीं है‧‧‧ खासकर तब जब वस्तुओं की जगह आज पैकेजिंग और ब्रांड ही बिक रहे हों‧‧‧ महंगे से महंगे ब्रांड्स और फैशन का ही क्रेज हो‧‧‧ तो आधुनिकता की होड़ और लोगों की नजर में आप पिछड़ती नहीं जायेंगी क्या!‧‧‧ कॉमप्लेक्स नहीं व्यापेगा आपको?

‘बिलकुल ठीक कह कही है आप‧‧‧ मेरी समवयस्काएं अक्सर फलां मार्केट, मॉल और सेल में आये, लेटेस्ट फैशन और क्रेज की बातें करती रहती हैं‧‧‧ कभी-कभी तो पागलपन की हद तक।‧‧‧ जैसे जीवन की सबसे बड़ी खुशी, उपलब्धि और उद्देश्य यही हो – लेकिन आपसे सच कहूं तो मुझे लगता है, आधुनिकता, ब्रांडेड कपड़ों, ज्यूलरी और हेयर स्टाइल में नहीं बल्कि ‘विचारों’ में होनी चाहिए न‧‧‧

मैं विमुग्ध थी। उसका यह वाक्य मेरे अंदर अनेक प्रतिध्वनियों में गूंजता रहा, जाने कितने लोग, दृश्य, घटनाएं याद आते रहे‧‧‧‧

मुझे वे ‘आधुनिक’ मांएं याद आईं जो टीवी चैनलों के रिएल्टी शोज में अपनी दुधमुंही बच्चियों को अश्लील, उत्तेजक आइटम सांग पर वैसे ही कपड़ों और हाव भावों के साथ डांस करती देख कर फूली नहीं समाती। उन माओं को इसका अहसास तक नहीं होता कि सिर्फ कुछ लाख रुपयों के एवज वे अपनी बच्चियों का अबोध बचपन छीनने का अपराध कर रही हैं।

मुझे अपने चारों तरफ के वे मध्यवर्गीय परिवार याद आये जहां ‘आधुनिकता’ की चपेट में, तेजी से अपनी जगह बनाने के लिए ग्रैंड पेरेंट्स, दादा-दादी, नाना-नानी को विस्थापित करते जा रहे हैं। जहां सास-ससुर अपना आदर मान – ‘माय हज्बैंड्ज पेरेंट्स’ के परायेपन में खो चुके हैं। हमारे एक-एक रिश्तों की खुशबू और पहचान हम स्वयं, छदम आधुनिकता की आंधी में उडात़े जा रहे हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह कि अपनी परंपरा का बहुमूल्य खोते जाने का हमें अहसास तक नहीं।

नकल की भाषा, नकल की संस्कृति, खान पान, हाव भाव और मौज मस्ती तक‧‧‧‧ हम अपनी तरह से खाना-पीना बोलना चालना तो दूर, सोचना तक भूल गए हैं। प्रश्न आधुनिकता से परहेज का बिलकुल नहीं, सिर्फ यह समझ लेने का है कि आधुनिकता का सबकुछ ग्राह्य नहीं और परंपरा का सबकुछ त्याज्य और हेय नहीं।

और इन सारे आंधी अंधड़ों के बीच, यह एक सामान्य सी युवती मां, अपनी सुस्थिर सोच के साथ मुस्कुरा रही थी।

फिर भी मैंने थोड़ा और कुरेदना चाहा –

‘अच्छा! आप तो समझ लेती हैं, लेकिन बच्चे?‧‧‧बच्चों पर तो आजकल जिस तरह चारों तरफ के माहौल और दोस्त दुश्मनों का ‘पियर प्रेशर’ हावी रहता है, उसे लेकर माताएं, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री तक चिंतित है‧‧‧

 – सूर्यबाला 

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