एक और ग्रहण, शपथ-ग्रहण

एक होता है चंद्रमा, एक होती है  धरती और एक होता है सूरज। इसी प्रकार एक होती है जनता, एक होता है नेता और एक होती है कुर्सी। चंद्रमा धरती से छोटा है, धरती सूरज से छोटी होती है, सूरज सबसे बडा होता है। जनता नेता से छोटी होती है, नेता कुर्सी से छोटा होता है, कुर्सी सबसे बड़ी होती है। चंद्रमा धरती के चक्कर लगाता है, धरती सूरज के चक्कर लगाती है, सूरज किसके चक्कर लगाता है, यह फिलहाल अज्ञात है। जनता नेता के चक्कर लगाती है, नेता कुर्सी के चक्कर लगाता है, कुर्सी किसके चक्कर लगाती है, यह भी फिलहाल अज्ञात है। चक्कर लगातेल गाते कुदरत के संविधान के अंतर्गत एक स्थिति ऐसी आती है, जब एक खास दिन, कुछ समय के लिए धरती पर कभी चांद की, तो कभी सूरज की परछाई पड़ती है, तब ग्रहण होता है। इसी प्रकार दिल्ली के संविधान के अंतर्गत जनता पर कभी नेता की, तो कभी कुर्सी की परछाई पड़ती है, तब शपथ-ग्रहण होता है। कुदरत के नियम अटल होते हैं इसलिए आप अभी से पता लगा सकते हैं कि भविष्य में कब व कितनी देर का चंद्र-ग्रहण होगा या सूर्य-ग्रहण होगा। वह कहां-कहां, कितना-कितना और कैसा-कैसा दिखेगा, पर चूंकि दिल्ली के नियम अटल नहीं, टल होते हैं, इसलिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी पता नहीं लगा सकते कि शपथ- ग्रहण कब, कैसा और कहां होगा ? साधारणतः शपथ-ग्रहण पाच साल बाद होना चाहिए, पर ये कोई हार्ड ऐंड फास्ट रूल नहीं है। बीच-बीच में नेता कुर्सी की टांग पकड़ते-पकड़ते उसकी छाती पर सवार होने के प्रयास में कभी खुद गिर जाता है, कभी गिरा दिया जाता है या कभी-कभी खींच- तान में कुर्सी स्वयं गिर जाती है। तब चुनाव घोषित होते हैं, फिर शपथ- ग्रहण होता है। इसके अलावा भी कभी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के मन में कुछ ग्रहों को इधर-उधर करने, कुछ बदनाम ग्रहों को डांटने या कुछ शैतान ग्रहों को मनाने की जब भी इच्छा होती है, शपथ-ग्रहण समारोह आयोजित हो सकता है।  

       ग्रहण और शपथ-ग्रहण में बहुत सी बातें एक समान होती है। जैसे दोनों ही देश के लिए घातक व अशुभ होते हैं। ग्रहण की तरह ही शपथ-ग्रहण भी कभी दिन में होता है, तो कभी रात में। कभी आधे घंटे का होता है, तो कभी चार घंटे का। कभी होता है तो केवल उसी इलाके में दिखाई देता है, अन्य इलाकों में दिखाई नहीं देता। आजकल ग्रहण और शपथ-ग्रहण दोनों को टीवी पर दिखाने का बडा रिवाज है। टीवी की खराबी के कई कारणों में से यह भी एक कारण है। जिस प्रकार गर्भवती महिला के लिए ग्रहण देखना वर्जित है, क्योंकि इससे होनेवाले बच्चे को भविष्य में कई संकटों का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अठारह साल से बड़ी उम्रवालों को भी शपथ-ग्रहण नहीं देखना चाहिए। शपथ-ग्रहण समारोह देखते ही वह शपथियाने लगता है। ग्रहण के वक्त पंचांग देखकर जो भूमिका पंडित-पुरोहित निभाते हैं, वही भूमिका संविधान देखकर राज्यपाल व राष्ट्रपति निभाते हैं। वही सारे रटे-रटाए मंत्र, वही सारी अनेकों बार दुहराई गई क्रियाएं। शपथ- ग्रहण के समय जो प्रमुख शपथ पद व गोपनीयता की ली जाती है, वह प्रायः उतनी ही नपुंसक साबित होती है, जितनी गीता पर हाथ रखकर खाई गई कसम। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि एक मंत्री जब पद, गोपनीयता व निष्ठा की शपथ खा चुका, उसे विभाग बदलते ही पुनः वैसी ही शपथ क्यों दी जाती है ? बार-बार वैसी ही कसम खाने से वह सच्चे के बजाय झूठा ही अधिक साबित होता है। जैसे बीस बार ब्रह्मचर्य की कसम खानेवाला व्यक्ति ब्रह्मचारी की बजाय कामी ही सिद्ध होता है।

    ग्रहण की तरह शपथ-ग्रहण की भी पूर्व तैयारी की जाती है। कैमरे सजा दिए जाते हैं। फोटोग्राफर्स ‘‘दे दान कि छूटे ग्रहण’’ की क्लिक भरी आवाज लगाते हैं। ग्रहणकर्ता कई दिनों से अपनी पोशाक सिलवाते घूमता रहता है। वह शपथ की रिहर्सल इतनी बार कर लेता है कि कहीं राज्यपाल या राष्ट्रपति कुछ भूल भी जाएं तो वह उसे पूरी की पूरी दुहरा देता है।

   ग्रहण और शपथ-ग्रहण में इतनी समानताएं होने के बावजूद जो प्रमुख असमानता है, वह यह है कि ग्रहण लगने के बाद भिखारियों को भीख देते हैं, लेकिन शपथ-ग्रहण में पहले जनता भीख (वोट) देती है, फिर शपथ-ग्रहण होता है। इसके साथ ही एक बात और। ग्रहण के पश् चात आदमी नहा-धोकर शुद्ध हो जाता है, लेकिन शपथ-ग्रहण के बाद वह अशुद्ध से अशुद्धतर होता चला जाता है। ग्रहण और शपथ-ग्रहण देश में जितने कम हों, उतना ही शुभ।

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