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क्या खत्म हो जाएंगी किताबें? | गंगाशरण सिंह | The end of Books? | Gangasharan Singh

क्या खत्म हो जाएंगी किताबों की दुनिया?

‘क्या किताबों की दुनिया खत्म हो जाएगी?’ यह शाश्वत चिन्ता तब उठ खड़ी होती है जब विज्ञान या तकनीक का हस्तक्षेप बढ़ जाता है और इसके मायाजाल में हम उलझने लगते हैं। इन दिनों पूरा विश्व कोरोना नामक महामारी के जबड़ों में फंसा हुआ है। मनोरंजन के ज्‍यादातर साधनों ने पाठकों और किताबों के बीच की दूरी कम करने के बजाय इसे और ज्यादा बढाय़ा है। बेशुमार धारावाहिकों ने पढ़ने वालों के सामने ऐसे विकल्प रख दिए थे कि लोग उलझकर रह गए। किताबों और पत्रिकाओं का एक बडापाठक वर्ग घरेलू महिलाएं थीं। चौबीसों घंटे चलने वाले टेलीविजन ने उनके जीवन में अन्तहीन धारावाहिकों की दुनिया का दरवाजा खोल दिया जिसने उनका सारा समय लील लिया। ऐसे में किताबों से दूरियां तो बढ़नी ही थीं।

कुछ समय बाद इंटरनेट युग का आया, जिसने किताबों का नुकसान ही किया। हालांकि इंटरनेट किताबों को प्रमोट करने का भी एक सशक्त माध्यम है। इसके अनेकों ऐसे प्लेटफॉर्म हैं जहां ज्यादातर निःशुल्क या कहीं कहीं मामूली से शुल्क पर किताबों के विज्ञापन और प्रचार प्रसार की अनेक सुविधाएं हासिल हैं। पर यह आरोप झूठा नहीं है कि इंटरनेट के कारण एकाग्रता भंग होती है किंतु इसे सोशल मीडिया का पर्याय मात्र नहीं कहा जा सकता।

एक न्यूज चैनल द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में मंच पर जब सवाल उठा कि ‘अंततः किताबों का क्या भविष्य होगा!’ तो साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले एक छात्र का कहना था कि ‘किताबों को स्पर्श करने के सुख और इनकी खुशबू की जगह कोई माध्यम नहीं ले सकता। इंटरनेट पर इतना भटकाव है कि कुछ पढ़कर याद रख पाना कठिन होता है।’

इंटरनेट निस्संदेह इस सदी की सबसे उपयोगी खोज है किंतु इस पर जरूरत से ज्‍यादा निर्भरता से भी किताबों की दुनिया प्रभावित हुई है। पहले हम किसी आवश्यक, तथ्यात्मक जानकारी के लिए किता बों की शरण में जाते थे। अब इंटरनेट पर तुरंत ढूंढ़ना हमें सुविधाजनक लगने लगा है। टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के जंजाल में उलझी नई पीढ़ी के बहुत से बच्चे साहित्य, संगीत, चित्रकला की विरासत से लगातार दूर होते जा रहे हैं।

मौजूदा समय में अपने अधिकांश कार्यों के लिए हम मोबाइल फोन और कंप्यूटर पर निर्भर हुए हैं। आज मोबाइल, आई पैड, टैब और लैपटॉप जैसी वो तमाम डिवाइसेस भी हमारे बीच मौजूद हैं जिन्हें न सिर्फ साथ रखना बेहद आसान है, बल्कि हजारों लाखों फाइलों को बहुत थोड़ी सी जगह में सुरक्षित रखा जा सकता है। इन दिनों जब किताबों के लिए हमारेरों में जगह कम पड़ने लगी थी, एक छोटी सी चिप में हजारों किताबें स्टोर किये जाने को वर्तमान तकनीक ने संभव बनाया। वर्ष २०२० के आरम्भ में कोविड-१९ नामक महामारी के कारण जब राष्ट्रीय स्तर पर लॉक डाउन हुआ तो किताबों के डिजिटल रूप में मौजूद किंडल जैसे माध्यमों ने सराहनीय भूमिका निभाई। कोरोना-काल में लाखों लोग अपने घरों में कैद रहने के लिए बाध्य हुए तो किताबों अखबारों और पत्रिकाओं के ई-वर्जन काफी हद तक मददगार साबित हुए। ये डिजिटल माध्यम इतनी आशा तो जगाते ही हैं कि जब भी किताबों के भौतिक अस्तित्व पर संकट आएगा, उस समय महत्वपूर्ण सामग्री को नष्ट होने से बचाने का कार्य किंडल जैसे माध्यम ही करेंगे। फेसबुक और व्हाट्सएप जैसे आभासी माध्यमों ने किताबों की संस्कृति को बुरी तरह प्रभावित किया है। आज देश की आबादी का एक बडाहिस्सा अपना कीमती समय इन माध्यमों पर जाय़ा करता है। अराजकता के इसी दौर में बहुत से व्हाट्सएप और फेसबुक समूह अत्यन्त निष्ठा और गंभीरता से किताबों की दुनिया को सहेजने, संवारने और इसे आगे बढाऩे में अपना योगदान दे रहे हैं।

पिछले कुछ बरसों के दौरान नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले के परिदृश्य का विश्‍लेषण करें तो साफ होता है कि आज भी छपी हुई किताब पाठकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। आज भी किताबों की सबसे ज्यादा खरीद किताबों की दुकान से ही होती है। हालांकि ऑनलाइन किताबें खरीदने का ट्रेंड पिछले कुछ वर्षों में तेजी से उभरा है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रकाशकों का अस्तित्व भी खतरे में है किन्तु यदि हम सिर्फ भारत की बात करें तो बीते एक दशक के दौरान किताबों के जितने नए प्रकाशकों इस क्षेत्र में उभरे हैं वह आंकडानिश्चय ही इस बात को गलत सिद्ध करता है।

किताबों के सामने ई-बुक्स ने भी थोड़ी मुश्किलें खड़ी की हैं। विदेशों में ऐसे लेखकों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी किताब प्रकाशित होने के साथ ही डिजिटल किताब बाजार में उतार देते हैं। इसी विषय पर एक बड़े जर्मन अखबार ने लिखा कि ‘इंटरनेट छपी हुई किता बों की संस्कृति और डिजिटल संस्कृति के बीच एक बड़े पुल का काम कर रहा है।डिजिटल किताबों का युग अभी आरंभ हुआ ही है।

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गंगाशरण सिंह

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