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ऐसे भी कुछ इंसान हैं…

 

बहुत से करीबी और जाने-माने डॉक्टर मित्रों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों से चिकित्सा एवं उपचार के आधुनिक उपायों या इनका व्यवहार करने वाले शहरी डॉक्टरों की सदाशयता में मेरा विश्वास कम हो चला है। इस बात का ‘जनरलाइजेशन’ काफी कठिन है लेकिन इस ‘नोबल’ व्यवसाय में मुनाफे की चाहत सबसे मुखर हो गयी है और उपकार या उपचार का मानवीय सरोकार कहीं हाशिए पर चला गया है।

इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि रोगी जिस डॉक्टर पर पूरा विश्वास कर अपने अच्छे होने का सारा दारोमदार डाल देता है, उसी से बेहिसाब पैसे वसूलने और उसके स्वास्थ्य को खतरे में डालने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आज एंजियोग्राफी के लिए अस्पताल में ऐडमिट हुए ज्यादातर मरीज एंजियोप्लास्टी भी करवाकर लौटते हैं। ‘सिजेरियन’ आपरेशनों के बगैर बच्चे पैदा होने बंद हो गए हैं, सी टी स्कैन किए बगैर रोगों को पहचानना मुश्किल हो चला है और शरीर के भीतर आपरेशन से प्लेट या तारों को बिठाए बगैर टूटी हड्डियों ने आपस में जुडऩा बंद कर दिया है।

नए वैज्ञानिक उपकरणों से जहां परीक्षणों में यांत्रिकता, प्रामाणिकता और ‘ऐक्यूरेसी’ बढ़ी है, वहीं इनके आने के बाद डॉक्टर की पारंपरिक योग्यता और कुशलता में गिरावट भी आयी है क्योंकि उनकी जगह अब ये उपकरण उनका काम करने लगे हैं। कुल मिलाकर यह किस्सा गणित में फिसड्डी किसी क्लास जैसा है, जिसके हर छात्र को दो को दो से गुणा करने के लिए भी कैलकुलेटर की जरूरत पड़ती है।

अपना एक अनमोल अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं। कुछ साल पहले बाथरूम के बाहर गिरे पानी में पैर फिसलने से मेरी दाहिनी कलाई की हड्डी टूट गयी थी। जाहिर है, पास के नामी गिरामी अस्पताल में जाना पड़ा। ऑर्थोपेडिक सर्जन ने बताया कि ‘मल्टिपल फ्रैक्चर’ को जोडऩे के लिए कलाई में लोहे की प्लेट लगाना जरूरी होगा। पांच हफ्ते हाथ प्लास्टर में रहेगा और तीन महीने फिजियोथेरेपी। सुनकर मुझ पर जैसे गाज गिरी! मुझ जैसे आदमी के लिए, जो दिन में आठ घंटे कंम्प्यूर पर काम करता हो, छह महीनों तक अपने दाहिने हाथ के बेकार हो जाने का खयाल ही दिल दहला देने वाला था। अस्पताल ने इस बीच अगली सुबह होने वाले आपरेशन की तैयारी में तमाम ब्लड टेस्ट, ई सी जी, डिजिटल एक्स रे और एलर्जी टेस्ट संपन्न कर डाले थे और डॉक्टर के सहायक ने मेरी पत्नी से यह भी पूछ लिया था कि प्लेट इम्पोर्टेड लगेगी या देसी से काम चल जाएगा? अगली सुबह हजारों के खर्चे से मेरा वह आपरेशन हो भी गया होता अगर उसी शाम मुझे देखने आई एक पड़ोसिन ने मुझे शहर के एक गुमनाम हाड़ वैद्य के बारे में न बताया होता।

अस्पताल के वार्ड से, एक्सरे प्लेट लेकर मेरी पत्नी उस वैद्य के पास गयी, जिन्होंने एक्सरे देखते ही कहा कि ऑपरेशन की दरकार नहीं, हड्डी जुड़ जाएगी। पता नहीं किस अंदरूनी साहसिकता से चालित हो मैंने वहां जाने का फैसला लिया! अस्पताल से बमुश्किल ‘अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस’ छुट्टी मिली। डॉक्टर ने कुछ व्यंग्य से कहा भी कि ताज्जुब है, आप जैसे पढ़े-लिखे लोग भी इस तरह के झांसों में आ जाते हैं।

रात के दस बजे, पट्टी में बंधे अपने टूटे हाथ को संभाले मैं उस वैद्य के पास हाजिर था, जिसे लोग ‘कुर्ला वाले चाचा’ के नाम से पहचानते थे। तिरासी वर्षीय चाचा उर्फ हाजी मुहम्मद शेख उस वक्त रोटी खा रहे थे। उनका वह दवाखाना किसी तेल की दुकान का भ्रम देता था, जहां दीवार पर टंगे समूचे शरीर के कंकाल वाले पोस्टर को छोडक़र उपचार का कोई संकेत नहीं था। अलबत्ता सभी अलमारियां तेल की बोतलों और पट्टियों से भरी हुई थीं। चाचा ने बहुत प्यार के साथ मुझे फर्श पर बिठाकर हाथ की सारी पट्टियां निकाल फेंकीं और एक हाथ कलाई पर फिराते हुए कहा कि हड्डी सिर्फ एक जगह टूटी है, बाकी सिर्फ अपनी जगह से खिसकी हैं! यानी, उनके अनुसार यह ‘मल्टिपल फ्रैक्चर’ नहीं था।

चाचा के दो सहायकों ने मेरे दोनों कंधों को कस कर थामे रखा। एक खास शागिर्द ने बिना कोई एनीस्थीसिया दिए, बीस मिनट तक मेरी कलाई पर सधे हाथों से तेल की मालिश की। फिर किसी स्प्रिंग की तरह उसे खींचकर वापस ढीला छोड़ा तो मैं दर्द से कराह उठा। अगले पल मेरा पूरा चेहरा पसीने भरी राहत से गीला हो गया था।

“बस, हो गया!” चाचा ने जल्दी से पूरे हाथ को दवा वाले तेल में नहला दिया था और फिर उसे बांस की पतली-पतली खपच्चियां लगाकर बैंडेज से बांध दिया था। अब उन्होंने मुझे अपना हाथ सीधा उठाने को कहा। मुझे लगा कि वे मजाक कर रहे हैं। अपने टूटे हुए हाथ को मैं कैसे उठा सकता था? लेकिन सचमुच जब मैंने हाथ धीरे-धीरे उठाया तो वह सामान्य हाथ की तरह ऊपर उठ गया! चाचा ने दो दिन के लिए मुझे शीशी में और तेल दिया, जिसमें मुझे टूटे हाथ को तर रखना था।

अगले दिन, खपच्चियों के ऊपर बंधी पट्टी तले, मेरे हाथ की सारी अंगुलियां आजाद थी और मैं कम्प्यूटर पर काम कर पा रहा था। मुझे ताज्जुब है कि इस सारी प्रक्रिया के दौरान या बाद में, मुझे हाथ में दर्द महसूस नहीं हुआ और न ही उसके लिए मैंने कोई दर्द-निवारक गोली खाई। मेरे हाथ पर बंधी पट्टी और घर भर में तेल से सने रद्दी अखबारों के सिवा सब कुछ सामान्य हो गया था।

पच्चीसवें दिन चाचा ने अपने कहे अनुसार हाथ की पट्टी ही नहीं, उसके नीचे लगी खपच्चियां तक खोल डालीं। फिर उन्होंने कहा कि अब ‘टेस्ट’ करना होगा। मैं हैरान था जब उन्होंने उसी टूटे हाथ से एक किलो से धीरे-धीरे बढ़ाते हुए बीस किलो का वजन मुझसे उठवाया। फिजियोथेरेपी के बारे में पूछा तो चाचा मुस्कराकर बोले, ”आपको फिजियोथेरेपी का ज्यादा ही शौक है तो घर जाकर भरतनाट्यम कीजिए! मेरे किसी मरीज को फिजियोथेरेपी की कोई जरूरत नहीं होती!”

चाचा के इलाज की कुल फीस नौ सौ रुपये थी। हर तीसरे दिन चाचा से दुबारा तेल लेने एवं ऊपरी पट्टी बदलवाले के लिए मैं उनके दवाखाने जाता था तो वे सौ रुपये और लेते थे। गरीब रोगियों की भीड़ वहां बनी रहती जबकि मुझ जैसी हैसियत वाले लोग हजारों खर्च कर अपनी हड्डियों को इम्पोर्टेड स्टील प्लेट से फाइव स्टार अस्पतालों में जुड़वा रहे होते! ज्यादातर मरीज वे थे जो अस्पतालों अपनी पैर या हाथ की टूटी हड्डी को स्टील की प्लेट से जुड़वा कर कराह रहे होते! चाचा सबसे कहते – खुदा की नियामत है यह जिस्म! यह लोहा लक्कड़ पहले निकलवा कर आओ, फिर हम हाथ लगाते हैं! एक्सरे देखकर वे बता देते कि मर्ज का इलाज उनके बस का है या नहीं!

मेरे इलाज की यह कहानी आपको अविश्वसनीय लग सकती है लेकिन इसमें एक शब्द की भी अतिशयोक्ति नहीं है। चाचा बताते हैं कि सात पीढिय़ों से उनका खानदान इसी काम में है और उनकी ताई अपने जमाने में बेहद हुनरमंद समझी जाती थी। वैसे वे बाराबंकी के कुरैशी हैं और उनके परिवार के अधिकांश सदस्य सौ से अधिक की उम्र तक जीवित रहे हैं। चाचा मानते हैं कि जो कुछ वे कर रहे हैं, वही काम ये पढ़े-लिखे डॉक्टर भी आसानी से कर सकते हैं।

‘हड्डी के जुडऩे में तेल का क्या काम?’ वैज्ञानिक होने के नाते मेरा मन सवाल करता है तो उनका पढ़ा-लिखा शागिर्द यूसुफ मुझे समझाता है कि जब टूटी हड्डियां जोड़ी जाती हैं तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया में शरीर का सारा कैल्शियम उस टूटे हिस्से के इर्दगिर्द बनने लगता है। दवा मिश्रित तेल के इस्तेमाल से यह कैल्शियम हड्डियां के बाहर के हिस्से में जमने की जगह, भीतर के हिस्से में इकठ्ठा  होता है जिससे जुडऩे की प्रक्रिया में तेजी आ जाती है। खुली पट्टी के कारण हड्डियों पर प्लास्टर जैसा बंद दबाव भी नहीं बनता और वे सहज तरीके से जुड़ जाती हैं।

आज वे चाचा नहीं रहे, पर उनके शागिर्द उन्हीं की तरह बहुत कम पैसों में, बिना किसी पद्मश्री या इनाम इकराम की उम्मीद के, बिना किसी बड़े सपने के, अपना पुश्तैनी धंधा, छोटी सी दुकान में, बेहद ईमानदारी और नेकनीयती से चला रहे हैं।

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जितेंद्र भाटिया

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